Monday, October 16, 2017

(८५) चर्चाएं ...भाग - 4

(१) देवी पूजन का कलयुग में बढ़ता महात्म्य ...क्या कारण है? भारत में देवी पूजन का चलन और कन्या भ्रूण हत्या कितनी विडंबना!
हम उच्चकोटि के स्वार्थी, पाखंडी और मंगते (भिखारी समान) हैं, यही एक मात्र कारण है गणेशोत्सव हो या नवरात्रि, या फिर कोई भी अन्य पर्व; पूजन में आडंबरों, तड़क-भड़क व दिखावों का जोश-ओ-खरोश निरंतर बढ़ ही रहा है. ...लेकिन हमारे दिखाने और खाने के दांतों में बहुत अंतर है! ...समाज में बढती धार्मिकता की सूजन के साथ कन्या भ्रूण हत्या की दर भी निरंतर बढती जा रही है! हम आखिर क्या चाहते हैं, कहाँ जा रहे हैं??? ...धिक्कार है, शर्म महसूस होती है.
कन्या भ्रूणहत्या पर लगाम लगाने के लिए आज स्त्रियों के प्रति सम्मान का बढ़ना अतिआवश्यक प्रतीत हो रहा है. इस निमित्त इस काल में देवी पूजन का बहुत महात्म्य है. लेकिन लोगों का स्वार्थ जो है न, वो भक्ति की मूल भावना और भाव को कुचले दे रहा है. लोग तो पूजन के समय देवी माँ से भी प्रार्थना करते हैं कि- सभी भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति हो, बड़े स्कूल में एडमिशन, अच्छे नंबर, अच्छी नौकरी, ऊंचा पैकेज, कामकाजी बीवी और 'पुत्र' की प्राप्ति हो!! केवल भक्ति हेतु ही भक्ति, ऐसी 'निष्काम' भक्ति अब देखने में नहीं आती. आज सब 'सकाम' हो गया है या फिर केवल मौज-मस्ती! 

(२) सबके हित में जिसकी प्रीति हो गई है उन्हें भगवान् प्राप्त हो जाते है! आसान है पर मुश्किल जान पड़ता है!
कितनी बढ़िया बात कही आपने, दिल खुश हो गया. "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना जिसके दिल में ठीक से आ गयी, उसने तो मानों भगवान् को पा लिया. उसकी सोच फिर निराली ही होती है- सभी निर्बंधों से परे, आकाश से भी ऊंची, कल्पनातीत! ..आपने सही कहा कि यह आसान है, पर बहुत मुश्किल जान पड़ता है; क्योंकि व्यक्ति के हजारों-लाखों स्वार्थ जो आड़े आ जाते हैं! आज के बाबा, तथाकथित संत और धार्मिक मार्गदर्शक भी इन स्वार्थों से अछूते नहीं! भगवान् को पा लेने का ढोंग करते हैं वो!
...आपने ऊपर एक शब्द "प्रीति" का प्रयोग किया है. अध्यात्म में इस शब्द (गुण) का बहुत महत्त्व है. प्रीति का अर्थ है- निरपेक्ष प्रेम (अनकंडीशनल लव)! जिस मानव का सभी (सम्पूर्ण सृष्टि) के प्रति निरपेक्ष प्रेम स्थापित हो जाये तो मानो सब सध गया, कुछ शेष न रहा. यही तो चरम बिंदु है किसी भी भक्ति, उपासना या साधना का! वातावरण में व्याप्त अनेकों अहं के स्पंदनों के कारण साधारण व्यक्ति इस चरम बिंदु को पा नहीं पाता, इसीलिए उसे यह कठिन जान पड़ता है. लेकिन यदि किसी प्रकार अहं व स्वार्थ आदि से मुक्ति पा ली जाये तो यह स्वतः बड़ी आसानी से सध जाता है. किसी भी आध्यात्मिक साधना में भी हमारे कृत्य या एक्शन का प्रमुख केंद्र अहं-निर्मूलन ही होता है. ..और अहं का निर्मूलन तभी संभव हो पाता है जब सत्संग और सत्साहित्य की मदद से हम मन में ईश्वरीय (नोबेल) गुणों की वृद्धि करते जाते हैं और उन गुणों को अपने दैनंदिन जीवन में हर पल, हर जगह, हर प्रसंग में 'निरंतर' उपयोग भी करते हैं. फिर धीरे-धीरे हमारा प्रत्येक कृत्य बेहतर से बेहतर होता चला जाता है. जब हम प्रकाशित होते जायेंगे तो अहं रूपी अंधकार भी क्रमशः कम होता चला जायेगा. अहं या किसी अन्य दुर्गुण रूपी अंधकार को मिटाने का यही सर्वोत्तम मार्ग है कि कोई प्रकाश-स्रोत प्रज्जवलित किया जाये. अंधकार को यूं ही धक्का मारने पर वो कभी भी नहीं जायेगा! अँधेरे का कोई स्रोत, स्विच या बटन नहीं होता जिसको ऑन-ऑफ किया जा सके लेकिन प्रकाश का स्रोत होता है. प्रकाश की अनुपस्थिति में ही अंधकार अपने पांव पसारता है. ...हमें परमेश्वर से साक्षात्कार इसलिए भी मुश्किल जान पड़ता है क्योंकि हम बिना किसी प्रकाश-स्रोत की मदद लिए अंधकार को भगाने की जुगत करते रहते हैं.

(३) आज अधिकांश लोग विश्वास से अधिक अंधविश्वास के शिकार क्यों नज़र आते हैं...? अधिकांश लोग अंधविश्वासों के शिकार हो कर ढोंगी बाबाओं के चक्कर में फंस जाते हैं!
इसके दो प्रमुख कारण हैं-- (१) मन में भरा असीमित लालच और सांसारिक इच्छाएं (ईश्वरभक्ति का दृष्टिकोण प्रायः 'सकाम' होना); (२) शिक्षा और जागरूकता की कमी! .....अधिकांश लोगों के मन में यह भ्रम होता है कि मंदिर के पंडित, पंडे, कथावाचक, बाबा, आदि बहुत ज्ञानी होते हैं तथा वे भगवान् और सामान्य जन के बीच सेतु (ब्रिज) का काम बखूबी कर सकते हैं! इसीलिए लोग "उपाय" पूछते हैं और वे बताते हैं! ...लोगों द्वारा सामान्यतः किन चीजों के उपाय पूछे जाते हैं- बच्चा (पुत्र) कब होगा, शादी कब होगी, नौकरी कब लगेगी, पैसा कब मिलेगा, व्यापार में घाटा कैसे कम होगा, मुनाफा कैसे बढेगा, वशीकरण के कुछ उपाय बताएं, मुकदमा कब छूटेगा, राहु-केतु-शनि आदि शांत कैसे होंगे, बीमारी कब जाएगी, अच्छे दिन कब और कैसे आयेंगे???? ...तथाकथित बाबा भी कुछ ऐसी लच्छेदार भाषा में सांत्वना देते हैं और उपाय बताते हैं कि सामने वाला निहाल हो जाता है (गुड सेल्समैनशिप), ...आपको लगने लगता है कि काम अब बना ही समझो! ..चूंकि हमारी समस्याओं में से अधिकांशतः साइकोलॉजिकल स्तर पर होती हैं तो वे तो बातें करते-करते ही काफी ठीक हो गयी प्रतीत होती हैं, शेष कुछ इसलिए ठीक हो जाती हैं क्योंकि कहकर ..भड़ास निकालकर हमारे दिल पर से बोझ काफी कम हो जाता है और अब हम हलके मन से समस्याओं से ठीक ढंग से लड़ सकते हैं, ...हम निर्भय होकर समस्याओं के सामने जाते हैं और जीत जाते हैं (निर्भय इसलिए हो जाते हैं क्योंकि बाबाजी ने सारा बोझ तो अब उपायों और भगवान् के ऊपर डलवा दिया)!!! ...बहुत बड़ा साइकोलॉजिकल ट्रीटमेंट है यह, लेकिन है तो आखिर धोखा ही!!! "उपायों" के माध्यम से वो खूब चूसते व लूटते हैं बुद्धुओं और लालचियों को! उनके फलने-फूलने का कारण हम और हमारी असीमित इच्छाएं ही हैं या फिर हमारा बुद्धू होना.

(४) समाज में बढ़ते व्यभिचार का मूल कारण क्या है...? सभी बुराइयों का मूल कारण केवल कलयुग को बताना कहाँ तक तर्कसंगत है...?
मुख्य कारण है हमारी तेजी से बदलती जीवनशैली के साथ नैतिक मूल्यों का गिरना. उन्नत देशों ने अपने नित-नवीन आविष्कारों से जो कुछ धीरे-धीरे एक बहुत लम्बे समय में हासिल किया, वो हमारे देशवासियों (विकासशील देशों) ने वैश्वीकरण के चलते एक ही झटके में एकाएक प्राप्त कर लिया. इसलिए हाजमा खराब हो गया हमारा! आज जो भी तकनीक, मोबाइल, इंटरनेट, आदि हम मुक्तहस्त से प्रयोग कर रहे हैं, उनमें से कितनों को ईजाद करने में हमारा योगदान रहा, और कितना प्रतिशत?! बना-बनाया मिल गया हमें तो टूट पड़े भूखों की तरह! "तकनीक और गैजेट्स को योग्य संस्कृति से प्रयोग ना कर पाना प्रथम कारण है बढ़ते व्यभिचार का." ..."अन्यों की संस्कृति का केवल काला पक्ष ही ग्रहण करना दूसरा कारण है बढ़ते व्यभिचार का." ..."कहने को बहुत व्यस्त, लेकिन व्यस्तता कहाँ, इसको टटोलें तो मिलता है तीसरा कारण बढ़ते व्यभिचार का." ..."खराब और उदासीन पेरेंटिंग चौथा बड़ा कारण है बढ़ते व्यभिचार का. (कहने को हम बच्चों को प्रवचन के जैसे बहुत से डू एंड डोंट्स बताते हैं, पर समानांतर रूप से कितना अमल हम खुद करते हैं!)." ...कलयुग या सतयुग कोई ऊपर से नहीं टपकता, एक संघ के नागरिकों की जीवनशैली ही इनका निर्माण करती है. और जो संस्कृति बदलती जीवनशैली के साथ नैतिक मूल्यों को सहेज नहीं पाती वह घोर कलियुग का सामना करेगी ही!

(५) बढ़ती धार्मिक हिंसा और आतंकवाद आज विश्व की सबसे बड़ी चुनौती हैं ...क्या आप इस विचार से सहमत हैं..? भारतवर्ष गत कई वर्षों से वर्षों से पाकिस्तान द्वारा फैलाये गए आतंकवाद का शिकार रहा है ...कल अमरीका में हुए आतंककवादी हमले में कई लोग मारे गए ...इस आतंकवाद का मज़हबी चेहरा कितना भयावह है!
जी हाँ..., मैं सहमत हूँ आपसे. ...परन्तु केवल पाकिस्तान का नाम लेना ही उचित न होगा, सम्पूर्ण विश्व में धार्मिक हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है. माना कि पहले लोग एक-दूसरे से परिचित नहीं थे, अन्य संस्कृतियों एवं सभ्यताओं से अपरिचित थे, तो अपनी-अपनी श्रेष्ठता का अहंकार होना स्वाभाविक था; सो अतीत में कभी ईसाईयों ने भी काफी धार्मिक हिंसा की, ...लेकिन समय बीतते ईसाईयों ने खुद को नियंत्रित किया किन्तु कुछ अन्य बड़े धर्म अपने अनुयायियों को आज तक सहिष्णु न बना पाए! ..दुनिया में इतने विकास और जान-पहचान के बाद भी किसी धर्मपंथ में धार्मिक असहिष्णुता, उन्माद या हिंसा का अभी भी होना उसके 'पिछड़ेपन' का द्योतक है. इसी कारण उनके लोग आज भी इतने अशिक्षित या/एवं गरीब हैं. ये अलगाववादी अपने कृत्यों के कारण स्वयं ही अन्य लोगों से अलग-थलग होते जा रहे हैं. कुछ समय बाद ये इतने अल्प व अलग-थलग हो जायेंगे कि इनके लिए अपने अस्तित्व की रक्षा करना भी मुश्किल हो जायेगा (उदाहरण के लिए - रोहिंग्या चरमपंथी और उनके मासूम बीवी-बच्चे - ..गेहूं के साथ घुन भी कैसे पिस जाता है, इसकी एक बानगी). .....वैसे धार्मिक हिंसा के अलावा अपना दादागिरी टाइप का वर्चस्व स्थापित करने की चेष्टा भी आतंकवाद या युद्ध का एक बड़ा कारण बनता जा रहा है (उदाहरण- उत्तर कोरिया व तानाशाही प्रवृत्ति वाले कुछ अन्य राष्ट्र). ....लेकिन यह तय है कि आने वाले समय में पिछड़े व कट्टर धर्मपंथ तथा तानाशाही राष्ट्र एक भारी कीमत चुका कर विलुप्तप्राय हो जायेंगे.

(६) समाज में उचित बदलाव लाने के लिए पहल किसे करनी चाहिए - बड़े लोगों को या नवयुवकों को? समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए क्या सही मार्ग है?
नौजवानों और बड़ों, दोनों को पहल करनी होगी. अपने अहंकार को किनारे रखकर, शुद्ध रूप से केवल 'उचित' के लिए ही दोनों पीढ़ियों को एक-दूसरे से प्रेरित होने में तथा एक-दूसरे को प्रेरित करने में जी-जान लगानी होगी. उचित और अनुचित में भेद हम तब ही कर पायेंगे जब हम अपने (समाज के) कृत्यों का तटस्थ एवं शिक्षित दृष्टिकोण से आंकलन करेंगे. आधुनिक और विकसित होने की दुहाई देकर हम उन पुरानी मान्यताओं व मूल्यों को तिलांजलि नहीं देंगे जो आज भी हमें नैतिक रूप से स्थिर रखने में सहायक हैं. ..हां, उन पुरानी बेड़ियों को अवश्य काटेंगे जो हमारी सोच को आगे ले जाने में बाधक हैं. ...याद रहे कि समाज को 'बदलाव' नहीं बल्कि 'विकास' चाहिए, ..और 'विकास' के क्रम में कुछ वैसा ही रखना, कुछ नया जोड़ना और कुछ डिलीट करना आवश्यक होता है. लेकिन संजोते, जोड़ते या मिटाते हुए अहंकार-रहित विवेक का जागृत रहना अत्यावश्यक! इस निमित्त बेहतर दिशा सुनिश्चित करने के लिए नौजवानों के साथ जागरूक और खुले दिमाग वाले बुजुर्गों का खड़ा रहना भी जरूरी.

(७) हमारे पर्वों का वास्तविक महत्त्व कब पूरा होगा? आज पर्वों के नाम पर केवल पैसे की बर्बादी और शोरगुल ही रह गया है ...क्यों?
हमारे पर्वों का वास्तविक उद्देश्य तब ही पूरा होगा जब वे हमें भीतर से और अधिक पवित्र, सहिष्णु तथा 'उचित' बना पाएं. ..किसी भी धार्मिक कृत्य या पर्व आदि की सार्थकता तब ही है जब वह हमारा आन्तरिक भाव बदलने या बेहतर करने में सक्षम हो, ..अन्यथा पुनर्विचार की आवश्यकता.  ...साल दर साल बढ़ते शोरगुल और पैसे की बर्बादी को देखते हुए तो इनके प्रासंगिक होने पर ही एक बड़ा सा प्रश्नचिह्न लग गया है! मुझे तो पर्व मनाने में विकृतियों का एक ही कारण समझ में आ रहा है कि धर्मगुरुओं द्वारा उचित एवं प्रासंगिक धर्मशिक्षा के अभाव में लोगों के विश्वास का खोखला हो जाना! अब पर्वों को वे मात्र "परिवर्तन और मनोरंजन" (चेंज और एंटरटेनमेंट) के रूप में मनाते हैं, और इन पर्वों में जो पूजा-अनुष्ठान आदि होते हैं, यंत्रवत करते हुए उनमें भी भगवान् से धन-यश आदि की गुजारिश वे कर लेते हैं कि शायद भगवान् खुश होकर उन्हें कुछ यूँ ही दे दें!

(८) आज समाज बदल रहा है या बुराइयों की गर्त में जा रहा है...? आधुनिक समाज तेजी से बदल रहा है जिसमें अनेकों बुराइओं का समावेश चिंता का विषय बन गया है ...आप भी अपने विचारों द्वारा इस बदलते सामाजिक परिवेश पर चर्चा करें.
अजी हमारे स्पीकिंग ट्री पर ही नजर दौड़ा लें! आध्यात्मिक कहा जाने वाला यह मंच कितने ही मसालेदार व्यंजनों से भरपूर है. प्रसिद्ध ब्लॉग देखिये, प्रसिद्ध स्लाइड शो, या टॉप ट्रेंडिंग चर्चा, किसका ट्रेंड चल रहा है और कौन प्रसिद्ध है, इसको देखने से साफ पता चलता है कि हमारी मानसिकता क्या हो गयी है! आगे किसी अन्य चर्चा या स्पष्टीकरण की आवश्यकता है क्या???!

(९) हम नित्यप्रति ज्ञान के बड़े बड़े सन्देश सुनते या पढ़ते हैं किन्तु व्यवहार में बदलाव क्यों नहीं ला पाते...?
यदि हम ज्ञान को व्यवहार में नहीं लायेंगे तो किसी भी सकारात्मक बदलाव की अपेक्षा रखना व्यर्थ होगा. विश्व में जहाँ कहीं भी ज्ञान को सकारात्मकता के साथ आचरण में समाहित किया गया वहां-वहां समाज (संघ) का ठोस विकास हुआ है. ....वैसे हमें प्राप्त ज्ञान की गुणवत्ता हमारी जिज्ञासाओं में भी प्रतिबिंबित होती है! हमारे देश के बीसियों धार्मिक चैनलों पर ज्ञान के बड़े-बड़े सन्देश हमारी बुद्धि को कहाँ ले जा रहे हैं इसके उदाहरण के लिए नीचे क्रमांक (१०) से (१२) पर पूछी गयी जिज्ञासाओं को देखें.

(१०) क्या किसी से पैन गिफ्ट में लेना चाहिए या नहीं, मैने मेरी छोटी बहन से कहकर पैन आस्ट्रेलिया से मंगवाया है, यदि यह गलत है तो ऐसा क्या करें जिससे हम दोनों में किसी को भी बुरा प्रभाव न हो!?
हद हो गयी भाई अंधविश्वास की!!! पेन रख सकने वाले और आस्ट्रेलिया तक जा पहुंचे आप जैसे पढ़ेलिखे लोग भी ऐसी बात करेंगे, यकीन नहीं हो रहा!! सही में हम ****** हैं!

(११) रात में श्वान का भौंकना अच्छा होता है या फिर बुरा?
श्वान की तो जबान, बोली, भाषा ...सबकुछ भौंकना ही है!! हाँ कभी-कभी वो अजीब सी आवाज में रोते भी हैं, उसका जरूर टेढ़ा अर्थ निकलते हैं कुछ लोग! ..ऐसे तो बिल्लियाँ भी म्याऊं म्याऊं करने के अलावा कभी-कभी रोती भी हैं!! सभी पशुओं के साथ ऐसा होता ही है. पर हमारे आसपास चूंकि कुत्ता-बिल्ली जैसे जानवर ही प्रायः पाए जाते हैं इसलिए हम सिर्फ उन्हीं की हरकतें देख पाते हैं. "कुत्ता रात में उन अजनबियों को देखकर भौंकता है जो आमतौर पर उससे परिचित नहीं होते." सावधान! उन्हें वो काट भी लेता है! ..अब कुत्ते का यह भौंकना आपके लिए बुरा है या अच्छा, यह तो इसपर निर्भर करता है कि कुत्ते के लिए अजनबी वह शख्स आपका कोई नाते-रिश्तेदार है या कोई चोर-उचक्का!

(१२) गाय का घर के दरवाजे पर आकर रम्भाना क्या संकेत लेकर आता है?
स्पष्ट संकेत है कि गाय भूखी है, कुछ भोजन चाहती है; ..वैसे हम लोग आड़ा-तिरछा सोचकर बहुत सारे अन्य अर्थ भी निकाल सकते हैं!