Thursday, November 16, 2017

(८९) चर्चाएं ...भाग - 8

(१) सपने का मतलब? सपने में यदि मैं खुद को पके धान का खेत काटते हुए देखूं तो इसका क्या मतलब है?
सपने को यदि मात्र सपना ही माना जाए तो इसका कोई गंभीर मतलब कतई नहीं है! यदि सपने का अर्थ किसी संकेत से लगाया जाए तो फिर बीसियों अंधे अनुमान लगाये जा सकते हैं! विभिन्न घटनाओं-प्रसंगों, देखे-सुने किस्से-कहानियों, फिल्मों, टीवी सीरियल, रोजमर्रा की बातचीत वगैरह के अपभ्रंश स्वरूप (एबनॉर्मल या करप्ट फॉर्म) हमारे अवचेतन मन में इकठ्ठा होते रहते हैं. सोते समय अवचेतन मन में इन्हीं अपभ्रंशों के जागने से सपने जन्म लेते हैं. इसीलिए अधिकांश सपनों का कोई सिर-पैर नहीं होता अर्थात् वे अर्थहीन होते हैं! अतः ज्यादा पचड़े में मत पड़िए; ज्यादा मत सोचिए!

(२) प्रेम विवाह के लिए घर वाले नहीं मान रहे तो क्या करना चाहिए?
जरूरी नहीं कि आप सही हों, ..और यह भी जरूरी नहीं कि आपके घरवाले भी सही ही हों. वे मना कर रहे हैं, तो सबसे पहले आप उनकी बात मानते हुए सब्र रखिये और भावुक होकर विद्रोह करने की सोच को बिलकुल छोड़ दीजिये; क्योंकि यह बात पक्की है कि घरवाले ही हमारा सबसे अधिक भला चाहने वाले होते हैं. फिर भी यदि आपके मन में कोई संदेह या वैचारिक मतभेद शेष रह जाएं तो परिवार के किसी अन्य समझदार व परिपक्व रिश्तेदार को मध्यस्थ बनाएं जिसपर आप सहित सभी को पूरा विश्वास हो. फिर वह जो भी निर्णय दे उसे सबके हित में खुले दिल से स्वीकार करें.

(३) मन में उठते संशय कैसे दूर किये जा सकते हैं...?
अच्छी विचारधारा के लोगों, मित्रों के समक्ष उन संशयों को रखकर परस्पर स्वस्थ चर्चा करने से काफी हद तक हल पाया जा सकता है. शेष व्यक्ति की बुद्धि, विवेक आदि उस हल पर निर्णायक मुहर लगाते हैं. संशय गंभीर होने पर किसी योग्य काउंसलर की मदद भी ली जा सकती है.

(४) नोटबंदी को लेकर लोगों के विचार अत्यधिक बंटे हुए क्यों हैं...?
वह इसलिए कि भाजपा ने अपने ढंग से इसके फायदे बताए और विपक्षी दलों ने अपने ढंग से इसके नुकसान! तो आम जनता के विचार का इस मुद्दे पर बंटना स्वाभाविक है. हमारे यहाँ का मतदाता एगोइस्टिक अंध-अनुयायी टाइप का होता है. वह एक दल पर काफी समय तक श्रद्धा रखता है, भले ही वह दल कुछ भी करे! ..सर्वविदित है कि केंद्र में भाजपा की सरकार चुनी गयी थी; मतदाताओं के एक बड़े समूह ने ही तो उसे चुना होगा ना! ..तो वह बड़ा समूह अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए अपनी श्रद्धा आजतक बनाये हुए है! अपने चुनाव को सही ठहराने के क्रम में वह केंद्र की हर सही-गलत नीति का समर्थन आंख मींचकर कर रहा है. नोटबंदी उनमें से एक है.
नोटबंदी हो चाहे जीएसटी या फिर डिजिटलीकरण, बिना किसी होमवर्क के बिना किसी 'पुख्ता' तैयारी के लागू करने से त्राहि-त्राहि ही मची है. मैं सरकार की इन नीतियों का समर्थक तो कतई नहीं! गुब्बारे में हवा भरकर विकास के फुलाव को दर्शाना ही लगता है मुझे यह सब! सत्ता के कार्यकाल की शुरुआत में मैं मोदी जी का प्रबल प्रशंसक था, मेरा वोट भी उन्हीं को डला था. लेकिन बाद में..., ..उनकी विभिन्न घोषणाओं के मध्य जो बात मुझे सबसे ज्यादा अखरी वह थी- अपनी सभाओं के दौरान अहंकारपूर्ण ढंग से ताली पीट कर अपनी बात को कहना. खुद को परम समझना और अन्यों को गाजर-मूली; उनकी यह अदा, उनकी सोच और कार्यशैली को दर्शाती है! ...नोटबंदी से लोगों को फायदा महसूस हुआ हो या नुकसान, लेकिन मैं तो मानता हूँ कि आत्मसम्मान को खोकर पाया कोई भी फायदा बेकार का होता है. ...और नोटबंदी के बाद आम जनता अनेकों बार आत्मसम्मान पर गहरी चोटें सह चुकी है. यदि अंगेजों द्वारा दी गयी गुलाम मानसिकता अभी भी भारतीय डीएनए में है और उसको कुछ भी महसूस नहीं होता तो बात अलग है!

(५) व्यवहार में संयम और भाषा की मर्यादा एक सुपात्र को पहचान देते हैं ...क्या आप इस विचार से सहमत हैं? व्यक्ति केवल डिग्री लेकर ही सुपात्र नहीं बनता!
अभी आपकी एक पूर्व-चर्चा "नोटबंदी को लेकर....." पर मोदी जी के आचरण (व्यवहार) पर कुछ लिख रहा था, उसके तुरंत बाद आप द्वारा छेड़ी गयी यह चर्चा देखी तो बरबस सोचने को बाध्य हो गया कि व्यवहार में असंयमता और अमर्यादित भाषा, एक 'प्रधानमंत्री पद' की गरिमा को भी नीचे गिरा सकती है! ....यानी सुपात्रता बल्कि गरिमा कागजी डिग्री से नहीं हासिल होती; वह प्रधानमंत्री पद मिल जाने तक से भी हासिल नहीं होती! गरिमा या ग्रेस आती है तो केवल भेदभावरहित सुन्दर व संयमित व्यवहार से और मर्यादित वाणी से! निःसंदेह, ऐसी गरिमा प्राप्त व्यक्ति ही असली सुपात्र होता है. उसके स्पंदन शीतल व सुखदाई होते हैं (राजनीतिज्ञों में उदाहरण- श्री अटल विहारी बाजपेयी). उसमें तेज होता है, उसकी निर्णयक्षमता उत्कृष्ट होती है, और वह किसी पंथ विशेष का नहीं अपितु वैश्विक धर्म यानी राईटएचनेस का योगक्षेम वहन करने में समर्थ होता है. वह भले लोगों में ही लोकप्रिय होता है, दुष्टजनों में नहीं! लेकिन वह ईश्वर का चहेता होता है.

(६) मानव जीवन का प्रयोजन क्या है?
समझने के लिए यहाँ हम शाब्दिक कल्पना का सहारा लेंगे. हमारी आत्मा, परमात्मा का एक छोटा सा अंश है. जैसे सागर की एक बूँद. पृथ्वी या भूलोक पर सृष्टि की रचना हेतु विभिन्न जीवों को जन्म देकर परमात्मा ने अपने चैतन्यमय अंशों (आत्माओं) को उनके भौतिक शरीरों में स्थापित किया. इन सभी में 'केवल' मनुष्य को उन्होंने अपने समान मौलिक गुणधर्मों से नवाजा और 'हमेशा' का भौतिक जीवन दिया, जबकि शेष जीव सीमित आयुष्य वाले थे. अन्य प्रत्येक जीव, वनस्पति एवं कच्चे पदार्थों का निर्माण मनुष्य के जीवन की सरलता व सम्पूर्णता हेतु हुआ था. आपने ही साकार रूप मानव को पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि प्रदान कर कार्य करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था. अर्थात् कार्यों अथवा चुनाव में कोई भी हस्तक्षेप नहीं. एक बात और, कि परमेश्वर या प्रकृति ने ब्रह्माण्ड में हर चीज, हर क्रिया पूरी तरह से नियमबद्ध कर रखी थी/है. प्रारंभिक काल में मानव यथासंभव प्राकृतिक नियमों के अनुकूल कार्य करता था. पर कालांतर में उसके मन पर आगंतुक संस्कारों का बनना आरंभ हो गया; और प्राकृतिक गुणों के विपरीत निर्मित इन संस्कारों से अनेक अयोग्य कार्य होने आरंभ हो गए. वह आत्मा के मूल गुणधर्म के विपरीत आचरण करने लग गया. प्रकृति-विरुद्ध जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप परमेश्वरी नियमों ने मानव जीवनकाल को सीमित कर दिया, अर्थात् एक आयु पश्चात् मानवों की मृत्यु होने लगी. ...पर चूंकि परमेश्वर बहुत दयालु व न्यायप्रिय है, अतः कुछ योग्य (या अयोग्य भी) आत्माओं को पुनर्जन्म के रूप में यह मानवयोनी दोबारा या कई बार पुनः प्राप्त होती है, जिससे वे पुनः अपने कर्मों एवं प्रारब्ध की सहायता से उन्नति कर सकें. 'प्रारब्ध' का निर्माण संस्कारजनित कार्यों पर निर्भर करता है, यह प्रकृति के नियमों के अंतर्गत ही होता है, इनमें से एक नियम है-- क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया! पहले के मानव ईश्वरीय गुणों के अनुरूप कार्य करने वाले थे तो दीर्घायु थी, पर कालांतर में गलतियाँ बढ़ने के साथ-साथ मनुष्य की आयु भी कम होती जा रही है. मन पर अंकित अप्राकृतिक एवं आगंतुक संस्कारों द्वारा नियंत्रित व घटित कार्य ही इसका व अन्य दुखों का कारण हैं. ......तो, एक तरह से प्रत्येक जन्म या जीवन जो हम मनुष्य रूप में प्राप्त करते हैं, वह एक और मौका होता है हमारे लिए कि प्रकृति एवं ईश्वर सम्मत उत्कृष्ट भौतिक कार्यों के द्वारा हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति भी कर पाएं.

(७) एक दार्शनिक कहते हैं कि जीवन में किसी को मात देना तो बहुत आसान है किन्तु जीतना काफी मुश्किल ...क्या आप इस विचार से सहमत हैं?
इस बात से सहमत हूँ मैं. यहाँ जीत की बात मन की जीत की है, दिल की जीत की है. शारीरिक बल से, अस्त्र-शस्त्र से, शास्त्र से, छल से, बुद्धि से, तर्क से, शब्दजाल आदि से किसी को भी हराना संभव है किन्तु किसी के मन अथवा दिल को जीतकर उसे अपना बनाना बहुत कठिन! एक दार्शनिक सा उदाहरण -- आज के अधिकांश शासक भारी भ्रष्टाचार एवं अपराध की रोकथाम के लिए यहाँ तक कि छोटे-मोटे अपराधों के लिए भी नित नए नियम-कानून बनाते रहते हैं, उनकी सहायता से थोडाबहुत भ्रष्टाचार परास्त भी होता है; लेकिन स्वयं और अपने दल की नेकनीयती यानी उत्कृष्ट आचरण एवं ओजपूर्ण वाणी से प्रजा-जनों के मन को जीतने और योग्य दिशा में परिवर्तित करने की कोशिश ना के बराबर ही रहती है! अर्थात् डंडे के जोर से काबू करना या जीतना सरल है संभव है परन्तु प्यार से दिल जीत कर किसी को अपना बनाकर योग्य मार्ग पर लाना बहुत कठिन! बच्चों की परवरिश भी तभी अच्छी मानी जाती है जब हम उन्हें अपने उदाहरण से सिखाकर योग्य नागरिक बना सकें, वर्ना डंडे या अनुशासन के जोर पर हम बच्चे को एक सीमा तक नियंत्रित तो कर सकते हैं पर उसका मन नहीं जीत सकते! और जब कभी भी अनुशासन का फंदा कमजोर पड़ता है, बच्चा विद्रोह करता ही है, ..क्योंकि हम उसे जीत तो कभी सके ही नहीं थे, हमारा सारा जोर उसे हराने पर ही था! विभिन्न सामाजिक, जातीय, पंथिक झगड़े उपद्रव आदि भी इसीलिए होते हैं कि सबका सारा जोर एकदूसरे को परास्त करने पर होता है. नियंत्रण पाने की इस तरह की कोशिशों से किसी के ऊपर वर्चस्व तो स्थापित किया जा सकता है पर उसे जीता नहीं जा सकता!

(८) जो अपने अहम् को त्याग देता है और पूर्णतय प्रभु को समर्पित हो जाता है, उसे इसी जन्म में मुक्ति मिल जाती है...?? क्या ऐसा कर पाना संभव है...?
"मुक्ति" शब्द मुझे तो बहुत पांडित्यपूर्ण व वजनी सा लगता है. पहले तो यह कि "मुक्ति" आखिर है क्या?! हमारे शास्त्रज्ञों ने इसको इतना भारी और जरूरी सा काम बताकर इसको पाने के लिए विविध स्थूल-सूक्ष्म अनुष्ठानों के कितने ही विचित्र से तरीके बताए हैं! आम जन को तो यह बहुत दूर की कौड़ी (असंभव सा) लगता है! क्यों हम भी अध्यात्म या आध्यात्मिक साधना की गूढ़ता को बढाएं?! ..और "प्रभु को समर्पित हो जाना", यह भी आमजन को बहुत दुष्कर सा कार्य प्रतीत होगा! ...हां, 'अहंकार को तिलांजलि देना', यह नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देना हुआ. आम जन को नैतिक मूल्यों से कोई परहेज नहीं और न ही वह नैतिक मूल्यों की शब्दावली से अनभिज्ञ है. उसके लिये यह सरल विषय है. ...तो सरल शब्दों में...., "आध्यात्मिक भाषा में जिसे 'आत्मज्ञान' कहते हैं वह हमारे भीतर की वो आवाज है जिसकी अनुभूति आमजन को भी सहजता से हो सकती है. वह अन्दर की आवाज विभिन्न प्रसंगों में यदाकदा सबको महसूस होती है. इसकी सबसे बड़ी पहचान है कि यह आवाज हमें सदैव अच्छे और मृदु होने के लिए उकसाती है. यह हमारी नैतिकता को उभारती है. इसके चलते हम अच्छा व योग्य निर्णय लेने के लिए प्रेरित या कभी-कभी बाध्य तक हो जाते हैं. ..खरी आध्यात्मिक साधना मेरे हिसाब से तो बस यही है कि हम उस 'यदाकदा' को 'हमेशा' में बदलने का प्रयास करते रहें. 'हमेशा' भीतर की आवाज को सुन पाना, उसको सम्मान देते हुए उसको मानना, यही हमें हमारे व्यक्तित्व को ऊपर उठाता है, हमारे मन पर बने आगंतुक कुसंस्कारों का प्रभाव कम कर उनका दमन करता है. इन संस्कारों से मुक्ति ही वह "मुक्ति" है जिसकी चर्चा यहाँ शुरू की गयी. ..और यह इसी जन्म में संभव है! जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति किसको चाहिए भला?! सबको सुखद जीवन चाहिए चाहे वह इस शरीर में हो, चाहे निराकार आत्मा स्वरूप में, चाहे ईश्वर के साथ एकरूपता में! सोचने, समझने और करने में यदि हम भीतर की आवाज के अनुरूप नेक पथ पर हैं तो हम सदैव मुक्त हैं, सदैव आनंद में हैं." ...और अब आध्यात्मिक शब्दों में...., "भौतिक शरीर के 'भीतर' विद्यमान 'जीव' के 'केंद्र' में शुद्ध आत्मा ही है जो परमात्मा का ही एक 'समान गुणधर्म' वाला अंश है; इसके इर्दगिर्द जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार, मन, बुद्धि, अहं एवं विभिन्न विशेषता, रूचि-अरूचि केंद्र हैं. ...आत्मा और यह सब संस्कार एवं अन्य बताए केंद्र मिलकर एक सूक्ष्म शरीर या सूक्ष्म जीव बनता है. यानी आत्मा सर्वथा मुक्त ना होकर विभिन्न जागतिक संस्कारों, अहं आदि से बद्ध है, ..वह मुक्त नहीं! इस कारण आत्मा भारवान (भारी) रहती है. इस कारण वह भूलोक या निम्न लोकों में रहने को बाध्य होती है, और उसका ऊपर की श्रेष्ठ कक्षाओं में जाना दुष्कर होता है. भूलोक या नीचे के लोक स्थूल होते हैं अतः यहाँ आत्मा को भी स्थूल परिवेश में ही रहना होता है. आध्यात्मिक भाषा में 'अहं' का अर्थ है कि स्वयं को ईश्वर, परमात्मा या आत्मा से भिन्न मानना, मैं पन होना! यह एक बड़ा कारक है कि आत्मा की ध्वनि हमें सुनाई नहीं पड़ती या हम उसे अनसुना कर देते हैं. इसका त्याग होने पर जीव, आत्मा के अधिक निकट हो जाता है. जब आत्मा के इर्दगिर्द अहं सहित सभी आगंतुक केंद्र हट जाते हैं तो इस स्थिति को ही 'मुक्ति' कहा जाता है. अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम जन्मधारी, शरीरधारी हैं या नहीं! हम आत्मा अर्थात् ईश्वर से एकरूप हो जाते हैं." ....मैंने तो पंडितों की अपेक्षा बहुत सरल कर दिया फिर भी कितना कठिन है न समझने में यह व्याख्या!! इसलिए मेरे विचार से सर्वसामान्य को इतने गूढ़ शब्दों में उलझने की जरूरत नहीं! वह पहले बताए सरल तरीके से भी 'मुक्त' होने का मार्ग ढूंढ सकता है. वैसे भी 'अध्यात्म' शब्दों का जंजाल नहीं अपितु मात्र अनुभूति का विषय है!

(९) हम भगवान की पूजा क्यों करते हैं? अगर हम ईश्वर को ना भजें तो क्या वह कमजोर हो जाएंगे? हम भगवान की भक्ति अपने लिए करते हैं कि भगवान् के लिए?
(१) भगवान् की पूजा अपना ढाढ़स बंधाने के लिए, ईश्वर के प्रति भाव बढ़ाने के लिए, मन की स्वच्छता के लिए, आत्मबल बढ़ाने आदि के लिए करना श्रेयस्कर होता है. पर शायद हममें से बहुतों का पूजा-अर्चना करने का आशय कुछ अन्य भी होता है! (२) ईश्वर को 'धार्मिक क्रिया या अनुष्ठान' के रूप में नहीं भजने से हमारे ऊपर ईश्वर की ओर से कोई विपत्ति या दंड जैसा दुष्प्रभाव नहीं होता है; ईश्वर को भजने से ईश्वर को भी कोई लाभ नहीं होता है; ईश्वर को भजने से क्रम संख्या (१) के अनुसार जो भी फायदा होता है वह करने वाले व्यक्ति को ही होता है! (३) अतः भगवान् की भक्ति मूलतः हम अपने लिए ही करते हैं.

(१०) क्या नेगेटिव जरूरी है पॉजिटिव के लिए, शैतान जरूरी है खुदा के लिए? काले आसमान में ही सितारें खिलते है, रूठना जरूरी है मनाने के लिए है!
केवल कुछ करने के लिए ही कुछ करना हो तो ये तुलनाएं करना या परस्पर विलोम कार्यों की सार्थकता सिद्ध करना समझ में आता है! अन्यथा व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए तो सच यही है कि किसी अच्छाई को या अच्छाई का महत्व, दिखाने के लिए उसके बाजू में किसी बुराई का आवश्यक रूप से उपस्थित होना बिलकुल भी जरूरी नहीं! किसी सकारात्मकता को प्रदर्शित करने के लिए नकारात्मक प्रसंग का इंतजार करना क्या उचित होगा? क्या केवल रूठने पर ही प्यार जताना चाहिए? क्या भगवान् का अस्तित्व केवल इसलिए है क्योंकि वहां शैतान भी है? क्या सूरज इसीलिए या तभी चमकता है, जब अन्धकार पनपता है? ...मेरे विचार से तो अँधेरे या नकारात्मकता का कोई अस्तित्व ही नहीं या कोई स्रोत ही नहीं! वह तो केवल प्रकाश या सकारात्मकता की अनुपस्थिति में ही अपने पांव पसार सकता है! हाँ...., यह अवश्य कह सकते हैं कि किसी भी सकारात्मकता या प्रकाश की हमें तब बहुत याद आती है जब वह नहीं होता और उस कारण नकारात्मकता अपने पांव पसार चुकी होती है!