Monday, December 4, 2017

(९०) चर्चाएं ...भाग - 9

(१) मुझे नहीं पता क्यों लेकिन मुझे बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है, छोटी छोटी बातों पर भी गुस्सा आता है। ऐसा क्यों है? मन हर समय परेशान रहता है, पुरानी बातें भूल नहीं पा रहा।
लगता है कि अतीत की कड़वी बातों या कुछ नकारात्मक प्रसंगों से प्रभावित होकर आपमें चिडचिडाहट आ गयी है! उसका दुष्प्रभाव तभी समाप्त होगा जब आप किसी नयी सकारात्मक दिशा में कुछ कदम उठायेंगे. यानी कुछ नया व कुछ सकारात्मक सोच या काम शुरू करेंगे, जिससे कुछ नए सकारात्मक (अच्छे) प्रसंग होने की सम्भावना बने. ...कड़वे के बाद कुछ मीठा खाना ही मुंह की जलन को दूर कर सकता है! अन्यथा कितना भी उछलते रहिये कड़वे का कष्ट कम होने वाला नहीं! ..तो बंधुवर, नवीन मीठे प्रसंगों को जन्म दीजिये, गुस्सा अपनेआप गायब हो जायेगा! ..यह सरासर आपके अपने हाथ में है, कोशिश तो करें!

(२) यह ज़िंदगी एक रंगमंच है, जहाँ हर एक को अपने दिए गए पात्र का अभिनय करना पड़ता है....
एक कुशल व ईमानदार कलाकार मात्र अभिनय नहीं करता, वरन वह भूमिका में डूबकर उसे जीवंतता की उंचाईयों पर पहुंचाता है. वह उस भूमिका को जीता है. यह सब उसे 'करना पड़ता है', यह बात नहीं! वह खुशी-खुशी स्वेच्छा से अपनी भूमिका को बड़े मनोयोग से निभाता है! इसलिए हे मानव, ..तुम जीवनरूपी इस रंगमंच पर अपनी उपस्थिति को मात्र एक मजबूरी न समझो! अपितु यह एक अवसर है कुशलता से अपनी भूमिका को निभाकर भविष्य में और भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिकाएं पाने का! हमारा जीवन मूलतः कर्मप्रधान है; अतः कुशल व जीवंत कर्म से ही हम लौकिक भूमिका से अलौकिक की तरफ बढेंगे.

(३) जीवन में आज तनाव का मुख्य क्या कारण है..? आधुनिक जीवन में बढ़ते तनाव के अनेकों कारण हैं, उनमें प्रमुख कारण क्या है?
सबसे बड़ा कारण है- अपने आत्मिक स्वरूप को भुलाकर मात्र दैहिक स्वरूप को ही याद रखना! मैं अमुक नाम का व्यक्ति हूँ, मेरा ओहदा यह है, मेरा पैकेज इतना है, मेरा स्टेटस यह है, मेरा परिवार यह है, मैंने इनके लिए यह किया वो किया, मुझे अपने साथियों से आगे निकलना है, आज मैं औरों से बहुत आगे हूँ, मेरे इतने फ्लैट और जमीनें हैं, मेरा इतना बैंक-बैलेंस हो गया, मेरा रुतबा औरों से बहुत ऊपर है, मेरी बहुत जानपहचान है, मैं बहुत सुन्दर हूँ, .....ऐसे न जाने कितने ही सांसारिक विषयों और भौतिक जगत तक ही सीमित रहना और उनके पीछे अंधाधुंध दौड़ना ही आज तनाव का मुख्य कारण है. कितना भी पा लें वो भी कम ही लगता है, तो कुंठा और निराशा साथ नहीं छोडती; ..या ये दोनों नहीं तो और अधिक पाने के लिए लालच तो बना ही रहता है! घर की सुन्दरता, कपड़ों की सुन्दरता, केशसज्जा की सुन्दरता, तन की सुन्दरता आदि पर ही ध्यान बना रहता है बस, ...मन की सुन्दरता को नोटिस करने का ध्यान किसे और कितना है भई! आत्मिक स्वरूप से तो कोसों की दूरी है! फिर तनाव कैसे न हो?! भौतिक संपन्नता पाने के लिए सारी कसरत हो रही है, सब होड़ में हैं, प्रेशर में हैं; ..इंसान बनने की सुध ही किसे है?! एक अच्छा इंसान बनना-बनाना यदि हमारी वरीयता सूची में ही नहीं तो भला तनाव कैसे न हो?!

(४) समझने और समझाने में इतना अंतर क्यों होता है...? कोई बात समझ में मुश्किल से आती है किन्तु समझाना आसान क्यों होता है...?
पुरानी कहावत है कि, 'बोलना तो आसान है पर करना मुश्किल!' ..इसी प्रकार, 'समझाना तो आसान है पर खुद समझना मुश्किल!' ....यीशु मसीह के समय भी कितने ही दिखावटी उपदेशक बहुत सारे प्रवचन दिया करते थे, तब यीशु मसीह ने लोगों से कहा कि, "जो ये उपदेशक कहते हैं बेशक तुम वह सब किया करो, क्योंकि ये ठीक ही बोलते हैं; ..लेकिन वह बिलकुल भी मत करो जो ये करते हैं!" यानी उनकी (उपदेशकों की) कथनी और करनी में भेद था! अर्थात्, कुछ करने के लिए कुछ समझाना तो बहुत सरल है, पर खुद भी समझकर आत्मसात करना व अमल करना बहुत कठिन! बहुत से डॉक्टर भी अपने मरीजों को तम्बाकू, शराब आदि से परहेज रखने को कहते हैं परन्तु दूसरी ओर समानांतर रूप से उनमें से कुछ डॉक्टर शायद इन चीजों का सेवन कर रहे होते हैं! ऐसे ही आज वर्तमान में कितने ही पाखंडी साधू-संतों का भी पर्दाफाश हो रहा है जो समझाते तो बहुत बढ़िया थे, उनके प्रवचन अति सुंदर थे; ..पर खुद क्या वो वह सब समझते भी थे जो वो समझा रहे होते थे!? जी नहीं! समझते होते तो पतन के गड्ढे में न गिरे होते! अतः खुद समझना आसान बात नहीं! समझने की निशानी है- बात को आत्मसात करना; और आत्मसात करने की निशानी है- व्यवहार से प्रकटीकरण (अमल)! ..जबकि समझाना आसान इसलिए है क्योंकि आत्मसात करना और अमल करना तो सुनने वाले का काम है!!!

(५) जैसे जैसे संसार से विमुख हों, ईश्वर के सन्मुख होते जाएँ ...क्या यह कथन सही है? संसार की प्रत्येक वस्तु और संबंध बंधन का कारक हैं ...केवल इनसे विमुख होकर ही मुक्ति संभव है!?
मेरा विचार आपकी बात से थोड़ा विपरीत सा है! मेरे विचार से कुछ 'त्यागकर या छोड़कर' कुछ 'पाने' के जतन से श्रेयस्कर यह होगा कि कुछ ऐसा पाने का जतन किया जाये जिससे अवांछित स्वयं ही छूट जाये! उदाहरण के लिए, 'झूठ' छोड़ने से श्रेयस्कर होगा कि 'सच' को अपना लिया जाये; झूठ अपनेआप छूट जायेगा! ...ईश्वर को जानते और गहराई से समझते जायें (सन्मुख होते जायें) तो संसार से आसक्ति (मोह) अपनेआप कम होता जायेगा! देह और संसार में रहते हुए भी तब हम उसके बंधन से (आसक्ति या मोह) से सर्वथा परे रहेंगे ही! ...अतः पहले विमुखता जरूरी नहीं! ईश्वर से निकटता बढ़ाते जायें तो संसार से विमुखता (बल्कि उसे अनासक्ति कहें तो बेहतर) खुदबखुद हो जाएगी. संसार की कोई भी वस्तु या सम्बन्ध, बंधन का कारक नहीं बल्कि ईश्वरीय गुणों से हमारी दूरी ही विभिन्न सांसारिक आसक्तियों का कारण है!

(६) एक सच्चा देशभक्त कौन होता है...?
एक देश का निर्माण कैसे होता है? लगभग एक समान विचारधारा और मेल खाती संस्कृति के लोगों के गुटों/संघों से ही विभिन्न देशों का निर्माण हुआ. फिर रोजगार, व्यवसाय आदि की तलाश में भी बहुत से लोगों ने किसी न किसी देश की नागरिकता स्वीकार की. कोई भी देश अपने यहाँ रहने वाले अपने नागरिकों को व्यवस्था व सुरक्षा प्रदान करता है. व्यवस्था कायम रखने के निमित्त बनाये गए उसके नियम-कानून प्रत्येक नागरिक को मान्य होने ही चाहियें. व्यवस्था व सुरक्षा पाने की एवज में प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह राष्ट्रभक्त हो. 'राष्ट्रभक्त' यानी राष्ट्र का आदर करने वाला और राष्ट्र को आदर दिलाने वाला! जीवनशैली और विचारों में लगातार सुधार ला कर एक सामान्य नागरिक यह कर सकता है. अपने परिष्कार के अलावा यदि वो समाज रूपी खेत में उग आई फालतू की खरपतवार को भी काटता-छांटता रहे तो और भी उत्तम! चूंकि हमारा जीवन कर्मप्रधान है इसलिए कुछ विशिष्ट बोलना या दिखावटी कृत्य कारण ही वास्तविक देशभक्ति नहीं अपितु कुछ रचनात्मक और सकारात्मक कार्य करना ही वास्तविक देशभक्ति होगी. जो नागरिक कानून के दायरे में रहते हुए अपने देश में अच्छाई को जितना अधिक बढ़ाने में लगा है और बुराई का विरोध भी करता है, वह नागरिक उस देश की प्रगति में उतना ही अधिक योगदान कर रहा है, वह ही खरा देशभक्त है.

(७) धर्म को लेकर राजनीति में विवाद कितने तर्क संगत हैं...?? आज धर्म, राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है और राजनीति का स्तर बहुत गिर गया है!
राजनीति में धर्म को कठपुतली समान नचाकर किसी पंथ विशेष को आकृष्ट करने से ओछा काम कोई दूसरा नहीं! वोटों को खींचने लिए धार्मिक भावनाएं भड़काना राष्ट्र को और पीछे लेकर जाता है. क्या यह राष्ट्रद्रोह समान नहीं? बड़े खेद की बात है कि इन्हीं कारणों से पता नहीं कितने ही वर्षों से हमारा देश एक 'विकासशील देश' है! कितने ही छोटे-बड़े राष्ट्र जो कभी हमसे काफी पीछे थे, आज 'विकसित' देशों की कतार में जा खड़े हुए हैं! क्योंकि हमारे आकाओं को अपनी कुर्सी से इतर कुछ दिखता ही कहाँ है! थोड़े बदलाव या आशा की किरण के रूप में मुझे अन्ना हजारे की कक्षा के निर्भीक छात्र अरविन्द केजरीवाल ही दिखते हैं जिन्होंने पारंपरिक भारतीय राजनीति में धारा से विपरीत एक बार नहीं बल्कि दो बार घुसने की और फिर तमाम झंझावातों के बीच डटे रहने की जबरदस्त हिम्मत की (केवल बोलने वाले तो बहुत लोग होते हैं). उनके इस प्रयास में राजधानी दिल्ली की प्रबुद्ध जनता ने उनपर तब ऐसा प्रचंड विश्वास तब दिखाया जब समस्त देश में भाजपा की आंधी चल रही थी! अब राजधानी दिल्ली की जनता को हम अनपढ़ या पिछड़ा हुआ तो नहीं कह सकते ना! तो फिर शायद शेष भारत में चेतना मृतप्रायः है! ये खडूस नेता धार्मिक विवादों को जीवित रखकर उस विकास की आधुनिक चेतना को क्या जागने ही नहीं देंगें कभी?

(८) सद् गुरु, स्वामी अग्निवेश, आचार्य प्रमोद कृष्णम् या इसी प्रकार के कुछ अन्य आध्यात्मिक गुरुओं के कम ही फॉलोवर्स हैं, क्यों?
इन तीनों और इसके सरीखे अनेक अन्य कुछ ज्ञानियों के अनुयायी इसलिए कम हैं क्योंकि ये ज्ञानीजन 'आईने' या 'दर्पण' समान हैं. ...दर्पण सच को सामने लाता है, और दागी व्यक्ति अपने दागों और ऐबों को छुपाता है, उनसे छुपता है; इसलिए वह आईने के सामने जाना अवॉयड करता है, टालता है, उससे बचता है! यह बिलकुल सच है कि हममें से अधिकांश तथाकथित धार्मिक या बुद्धिजीवी लोग परले दर्जे के स्वार्थी और मौकापरस्त हैं, ओछी मानसिकता के अनेकों दाग रखते हैं, ...इसलिए इन सरीखे ज्ञानियों से पर्याप्त दूरी बनाकर रखते हैं. ..बहुत त्रासद है यह कि, कई दूसरे धर्मगुरु जो केवल हमारी भावनाओं, लालसाओं आदि को तुष्ट करते हैं, हमें अनेकों सब्जबाग दिखाते हैं, हम सिर्फ उन्हीं को पसंद करते हैं!

(९) एक सच्चे आध्यात्मिक गुरु की क्या पहचान है....?? आज बहुत सी संख्या में आचार्य और गुरु मिल जाते हैं किन्तु सच्चे निष्ठावान गुरु को कैसे पहचानें?
एक सच्चे आचार्य, आध्यात्मिक गुरु, या मार्गदर्शक का सर्वप्रथम 'संत' वृत्ति का होना परम आवश्यक है. स्वयंभू संत नहीं वरन सच्चा संत! एक सच्चा संत ही एक खरा आध्यात्मिक गुरु सिद्ध हो सकता है. वास्तविक संत की पहचान-- (१) संत ऊपर से दिखने पर साधारण मनुष्यों जैसे ही होते हैं, जल्दी पहचान में नहीं आते; वे केवल आनंद और संतोष की सुगंध से ही पहचाने जाते हैं. ..(२) संत का अस्तित्व उसकी भौतिक देह या वेशभूषा में न होकर केवल उसके वचनों में होता है. कैसी भी थैली में हीरा रखने पर थैली का महत्त्व नगण्य होकर केवल हीरे का महत्त्व रहता है. ..(३) खरे संत की पहचान उसके विशिष्ट वस्त्रों, केश-विन्यास, भावभंगिमाओं अथवा वाह्य श्रृंगार (मेकअप) से नहीं, वरन उसके नैसर्गिक प्रभामंडल से होती है. ..(४) संत का उद्देश्य अपने उपदेशों या वचनों द्वारा सुनने वालों को मात्र रिझाना नहीं होता, वरन उनके वास्तविक कल्याण की दृष्टि से वे उपदेश देते हैं. ..(५) जिसकी संगति में हमारे अंतर्मन में भगवत्-प्रेम प्रकट हो और विषयों के प्रति आसक्ति कम हो, उसे संत जानें. ..(६) संत के पास जाकर संतोष, शांति व आनंद आदि का वास्तविक अर्थ पता चलता है और इन्हें पाने की रूचि उत्पन्न होती है, ..(७) ईश्वर की सगुण अथवा निर्गुण भक्ति तथा ईश्वरीय गुणधर्मों से ओतप्रोत जीवन जीने के अतिरिक्त कोई भी बात संतों को रुचिकर नहीं लगती. ..(८) अपने व्याख्यानों में संतजन जिन सिद्धांतों की चर्चा करते हैं, उन्हें वे भलीभांति हृदयंगम कर चुके होते हैं और आचरण द्वारा सतत प्रकट करते हैं. ..(९) संतों के व्याख्यान उनके स्वयं के अनुभवों और अनुभूतियों पर आधारित होते हैं, वे व्यर्थ का ढोंग या दिखावा नहीं करते; उपदेश करना उनका व्यवसाय नहीं होता. ..(१०) संतों में भी षड्-विकार होते हैं परन्तु उनका रूपान्तरण भगवत्-भक्ति के साधन के रूप में हो जाता है; तब ये षड्-रिपु व्यष्टि और समष्टि साधना के लिए उपकरण समान बन जाते हैं. ..(११) संतों को भी पूर्वकर्मजन्य प्रारब्ध को भोगना पड़ता है, शारीरिक कष्ट भी होते हैं, परन्तु देहभान न होने के कारण उन्हें इसके कारण किसी सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता. ..(१२) संत हमारे जीवन में आने वाले कष्टों को दूर नहीं करते, वरन वे कष्टों के प्रति हमारे भय को समाप्त कर देते हैं. संकट से अधिक दुखदाई संकट का भय होता है! ..(१३) संत के संसर्ग से हम पापकर्म से दूर होते हैं तथा दुखों में आश्वासन, धैर्य व ढाढ़स प्राप्त करते हैं. ..(१४) संत की संगति से तर्क क्षीण होते हैं, वृत्ति बदलती है, अनुभव और अनुभूतियाँ बढ़ते हैं, अंततः ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति होती है; क्योंकि ईश्वर को तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता! ..(१५) साधारण संत कहता है, "दुष्टों का नाश हो", जबकि खरा संत कहता है, "दुष्टता का नाश हो" अर्थात् दुष्ट व्यक्तियों की दुष्टता मिटे. ..(१६) खरे संत की सबसे बड़ी पहचान यह है कि आप किसी सांसारिक अभिलाषा की प्राप्ति के लिए उसके पास जायेंगे और अभिलाषा रहित होकर लौटेंगे; संत-संग का यह सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम है. ..(१७) खरा संत हमें कभी भी सांसारिक विषयों में उलझाएगा नहीं, न ही उन्हें एकदम से त्यागने के लिए कहेगा; बल्कि वह उन विषयों के प्रति हमारी आसक्ति को समाप्तप्राय कर देगा. ..(१८) खरा संत कभी भी अपने 'संत' होने का प्रचार-प्रसार नहीं करता और न ही किसी के द्वारा 'संत' कहने-कहलाने पर गदगद् (प्रसन्न) होता है. ..(१९) संत किसी प्रकार का चमत्कार नहीं करते, चमत्कार जैसा कुछ स्वयमेव हो जाता है! इसके लिए आवश्यकता है सतत संत-संगति की.