Tuesday, March 27, 2018

(९३) चर्चाएं ...भाग - 12

(१) आज लोग अध्यात्म से जुड़ने का ढोंग तो खूब करते हैं किन्तु वास्तविकता कुछ और है, ....क्यों? आज जिसे देखो अध्यात्म की चर्चा करता दिखाई देता है किन्तु वास्तविकता में आज समाज का नैतिक पतन हो रहा है.
उथलापन इसका मुख्य कारण है! उदाहरण के लिए- (१) मनोरंजन और पिकनिक के तौर पर किसी वाटर-पार्क पहुंचे लोग और सागर के इर्दगिर्द या सागर में ही अधिकांश समय बिताने वाले मछुआरों के जल सम्बन्धी ज्ञान में बहुत अंतर होता है. (२) वर्चुअल गेम खेलने वाले और एक्चुअल गेम खेलने वाले स्पोर्ट्स-पर्सन के व्यक्तित्व में बड़ा अंतर होता है. (३) खाली अर्थात् कम भरा पात्र अधिक खड़कता है, जबकि भरा बर्तन वजनी और बहुधा शांत ही होता है. (४) बहुत से पहुंचे हुए व्यक्ति अर्थात् स्वामी-गुरु आदि अध्यात्म के पथ पर काफी अग्रसर हो जाने के पश्चात् अक्सर यह भूल जाते हैं कि उनकी आध्यात्मिक यात्रा का वास्तविक प्रयोजन आखिर क्या था!!! ..भौतिक चकाचौंध और धन-यश या मात्र यश की अभिलाषा ही उनका नैतिक पतन कर देती है (इसके अनेक प्रसंगों-अनुभवों का मैं स्वयं साक्षी हूँ). (५) किसी खेल या विधा जैसे तैराकी ही..., तैराकी के बारे में हम कितनी ही पुस्तकें पढ़ लें, रट लें; कितना भी ज्ञान अर्जित कर लें; ..हम उस पर बहुत बोल सकते हैं, भाषण दे सकते हैं, बहस कर सकते हैं, ....पर हम तैर नहीं सकते!!! ..सब जानते हैं कि तैरना सीखने के लिए क्या करना पड़ता है!

(२) परिवर्तन ही जीवन का नियम है तो अपनी सोच में परिवर्तन क्यों नहीं कर पाते सभी? यदि परिवर्तन सोच में भी हो तो क्या जीवन सरल नहीं हो जायेगा?
प्रत्येक व्यक्ति आज कुछ अपने कुछ विशिष्ट संस्कारों (इम्प्रेशंस) और धारणाओं के अधीन है. इनके चलते उसकी सोच इतनी दृढ़ सी हो गयी है कि अचानक किसी परिवर्तन की बात पर वह भड़कता है, आसानी से राजी नहीं होता, या चाह कर भी खुद को बदल नहीं पाता. मेरे विचार से किसी को 'परिवर्तित' होने के लिए कहना उसे उसकी पूर्वस्थापित सोच और अहं के विरुद्ध लगता है. ...'परिवर्तन' के स्थान पर यदि 'शोधन', 'परिष्करण', 'निखारना' (रिफाइनमेंट) आदि के लिए कहा जाये तो व्यक्ति के अहंकार पर कोई चोट नहीं होती! ..सत्य भी तो यही है कि हम यदि व्यक्तित्व और सोच आदि में 'निखार' लाने की कोशिश करें तो इस क्रम में जरूरी परिवर्तन भी अपनेआप हो ही जाते हैं! व्यक्ति, समाज या सोच की असली उन्नति के लिए 'परिवर्तन' की नहीं, बल्कि 'रिफाइनमेंट' या 'निखारने' की आवश्यकता है. 'परिवर्तन' शब्द में आलोचना का पुट है जबकि 'रिफाइनमेंट' या 'बेटरमेंट/इम्प्रूवमेंट' (और ज्यादा अच्छा बनो) शब्द जोश पैदा करते हैं. जरा सोचकर देखिये कि स्वयं की या अपने किसी करीबी की सोच को बदलने के लिए इनमें से कौन से शब्द मनोवैज्ञानिक तौर पर अधिक कारगर हैं?!

(३) जीवन क्या है! एक धोखा या एक कर्तव्य? मोह या समर्पण? मैंने जीवन को एक धोखे की तरह देखा है जो हम खुद को देते हैं जीवन भर, औरसमझते हैं हम जी रहे हैं, लेकिन हम तो उस भंवर में फंस रहे होते जिसका कोई किनारा नहीं, कोई मंजिल नहीं!
यदि जीवन के आध्यात्मिक पक्ष से अपरिचित ही रहें तो भौतिक जीवन सरासर 'मृगतृष्णा' समान ही प्रतीत होता है! कुछ भी स्थाई नहीं फिर भी इतने दंदफंद, चालाकियां, राग-द्वेष, ईर्ष्या, सबकुछ समेट लेने की होड़!!! ..अंततः इसकी समाप्ति खाली हाथ ही! ...इस भौतिक भंगुरता को देख-समझ कर तो इसके आध्यात्मिक पक्ष के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होनी ही चाहिए. जब हम आध्यात्मिक पक्ष को भौतिक पक्ष के ऊपर वरीयता देंगे तो समस्त नकारात्मकताएं समाप्त हो जायेंगी और फिर हमारा भौतिक जीवन भी लक्ष्यविहीन न रहेगा. तब हम इसे (भौतिक जीवन को) अपने समस्त आध्यात्मिक जीवन के बीच आए एक दिलचस्प पड़ाव की तरह देखेंगे, जहाँ हमें अपने आत्म-परिष्कार के भी असंख्य मौके मिलते हैं. यह भौतिक जीवन है ही आत्म-परिष्कार के लिए! यही इसका एक सबसे बड़ा उद्देश्य है.

(४) डिफरेंस बिटवीन धर्म एंड रिलिजन? धर्म वह जो हम पैदा होते ही धारण कर लेते हैं। यह ईश्वर प्रदत्त हमारी जीवन पद्धति है। परन्तु सम्प्रदाय हमने स्वयं उत्पन्न किए। पहले सम्प्रदाय माने लोगों, समाज़ को जोड़ने बाला। समता में स्थापित करने बाला। आज यह समाज़ को विघटित करने बाला बन गया है।
अंग्रेजी शब्दकोष में 'रिलिजन' शब्द का अर्थ मिलता है -- "विश्वास (आस्था) और पूजा का प्रचलित तरीका"! संभवतः अमुक रिलिजन किसी अमुक समुदाय, सम्प्रदाय या संघ के ईश्वरीय विश्वास, आस्था और पूजा के आन्तरिक व वाह्य (सूक्ष्म व स्थूल) आचारों-विचारों का सम्मिलित रूप है. अर्थात् उस समुदाय की विभिन्न सूक्ष्म-स्थूल उपासना पद्धतियाँ, ईश्वर के साकार-निराकार रूप एवं नाम, कर्मकाण्ड, तीज-त्यौहार व पारंपरिक उत्सव आदि उसमें शामिल हैं. यह सब समुदाय दर समुदाय भिन्न होता है. अतः यही कारण है कि विश्व भर में इसने सारे रिलिजन हैं. ..जबकि धर्म / धार्मिकता शब्द का अंग्रेजी भाषा में समानार्थी शब्द है -- 'राईटीयचनेस' ('राईट' यानी 'सही' से बना शब्द) अर्थात् सत्यनिष्ठा, योग्य एवं न्यायपूर्ण आचार व विचार. संभवतः हिन्दू शास्त्रों या तत्त्वज्ञान के अनुसार भी धर्म का कमोवेश यही अर्थ निकलता है. इसलिए हिंदी शब्द 'धर्म' का अंग्रेजी में अनुवाद 'रिलिजन' बिलकुल गलत है! जैसा कि आपने भी कहा कि 'धर्म' ईश्वर प्रदत्त हमारी जीवन-पद्धति है. अर्थात् 'आत्मानुभूति' ही 'धर्म' है. धर्म सदा-सदा से उसी में निहित है. ..तो धर्म तो प्रत्येक जगह एक ही है, अतः विभिन्न रिलिजनों में इसके भिन्न-भिन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता! जबकि अन्य सूक्ष्म-स्थूल सांप्रदायिक अनुष्ठानों को हम अंग्रेजी में 'रिलीजियस एक्टिविटीज' या 'रिलीजियस रिचुअल्स' कह सकते हैं. ...एक-दूसरे को अपनी बात संप्रेषित करने के लिए हमारे पास भाषा और शब्दों की सीमितता है, ..और जब विषय अनुभूति से सम्बंधित हो तो मुश्किल और भी बढ़ जाती है. ...वर्तमान हिंदी भाषा में 'रिलिजन' के समानार्थी कोई भी शब्द नहीं है! प्राचीन भारत में पहले 'धर्म' शब्द में सब निहित हो जाता था. अर्थात् पहले 'धर्म' शब्द का अर्थ 'रिलिजन' शब्द के बहुत निकट था. परन्तु कालांतर में, ज्ञान की अगली कक्षाओं या अवस्थाओं में पहुँचने पर पता चला कि 'आत्मानुभूति' ही सही मायनों में 'धर्म' है. यही 'राईटियचनेस' है, या 'राईटियचनेस' इसी में निहित है! हाँ, समस्त सामुदायिक वाह्य आचार-विचार हम 'रिलिजन' शब्द में स्थानांतरित कर सकते हैं. यदि हम जिद में आ जायें कि हम अभी भी 'धर्म' शब्द को उसी प्राचीन अर्थ में ही प्रयुक्त करेंगे, तो हम अपनी बात, खरे धर्म की बात, अन्यों को नहीं समझा पायेंगे. ध्यान रहे कि शब्दों और भाषा का महत्व मात्र भाव-भावनाएं समझने-समझाने के लिए है. वैश्वीकरण के इस दौर में अनेकों संस्कृतियों व भाषाओं के आपस में घुलमिल जाने से कई शब्दों के अर्थ बदल चुके हैं, और कईयों के बदल रहे हैं. ..ऐसे ही 'संस्कृति' या 'कल्चर' शब्द भी बहुत पुराना नहीं है. हमारे (या किसी सम्प्रदाय के) "समस्त वाह्य आचार", जैसे भाषा, रहन-सहन, वेशभूषा, तीज-त्यौहार, परंपराएं, रीति-रिवाज, आदि इस शब्द की परिधि में आ जाते हैं. एक तरह से 'रिलिजन' भी इसी में आ जाता है! 'रिलिजन' शब्द के लिए हम कदाचित् 'पंथ' शब्द प्रयुक्त कर सकते हैं! .....ऊपर हमने जो विश्लेषण किया वह कोई नया या अनोखा नहीं है! सभी समझदार (?) लोग जानते हैं. परन्तु फिर भी हममें व्यापकता का अभाव है. वह इसलिए कि कहीं हम अपनी व्यक्तिगत या सांप्रदायिक पहचान न खो दें! विज्ञान और अध्यात्म की दुनिया या शिक्षा के बीच यही बुनियादी अंतर है कि ज्ञान की सीमितता के बावजूद विज्ञानी व्यापक बने, जबकि असीमित ज्ञान भंडार की उपलब्धता के बावजूद तथाकथित आध्यात्मिक व्यक्ति अपने 'खोलों' (शेल्स) में ही रह गए! आज हमसे सबसे बड़ी गलती यह हो रही है कि हम 'रिलिजन' ('संस्कृति') और 'धर्म' को एक ही मानते हैं अर्थात् संस्कृति को ही धर्म का दर्जा देते हैं. ...हमारे वाह्य आचार (बाहरी रहन-सहन या जीवन-पद्धति) हमारी 'वास्तविक' धार्मिकता को नहीं दर्शाते बल्कि दूसरों के प्रति हमारे दिल की गहराइयों में छुपी भावना व उसके निर्देशानुसार हमारे कर्म ही हमारी धार्मिकता को प्रकट करते हैं. और परमेश्वर केवल यही देखता है, हम असिद्ध इंसानों से उसे प्रथमतः यही अपेक्षित है. ध्यान रखें कि परमेश्वर की विभिन्न उपासना पद्धतियाँ भी लोगों की 'संस्कृति' का ही एक भाग है! वे माध्यम मात्र हैं उस तक, उसके गुणों तक पहुँचने का! ये संस्कृति का ही एक हिस्सा हैं इसलिए तो देश-काल-परिस्थिति अनुसार इनमें इतनी सारी भिन्नताएं हैं! यह जानते-बूझते हुए भी लोग अहंकारवश यही कहते हैं कि उनकी अपनी संस्कृति या रिलिजन ही सच्चा व सर्वश्रेष्ठ है और अन्य का दीन-हीन!!! ...फिर भी हम देखते हैं कि असंख्य वाह्य भिन्नताओं के बावजूद कुछ चीजें पूरे संसार में, सब पंथों में, समुदायों में एक सी पाई जाती हैं -- वह है एक सर्वोच्च अद्भुत शक्ति को मान्यता, जो अदृश्य व निराकार है परन्तु सर्वत्र विद्यमान है; यथासंभव विभिन्न चिरपरिचित नैतिक मूल्यों को स्वीकृति, उनका आग्रह, उनको अपनाना, आदि! ...तो फिर क्या यह नहीं माना जा सकता कि जो बात लगभग प्रत्येक सामुदायिक धर्मग्रन्थ एक सुर में बोलते हैं शायद वही यथार्थ धर्म है!!! यानी अंततोगत्वा 'राईटियचनेस' यानी सत्यनिष्ठा, योग्य एवं न्यायपूर्ण आचार-विचार ही ईश्वर को सर्वाधिक प्रिय है!!! तो वास्तविक अथवा खरा 'धर्म' तो यही हुआ! ...एक बात और.., कि बिना किसी लिखी, बोली गयी या सुनी गयी बात के प्रभाव में आए यानी सबको किनारे रखकर यदि हम अंतर्मुख होकर यह ध्यान करें कि अंततोगत्वा क्या चीज हमारे लिए सबसे अधिक महत्त्व रखती है तो भीतर से आवाज यही आयेगी कि, "'यथासंभव योग्य और न्यायपूर्ण आचरण"! पुनः विचार करने पर कि, "योग्य एवं न्यायपूर्ण आचरण" अर्थात् क्या??? ...सभी को समान जानकारी भीतर से मिलेगी!!!! समान तभी, जब हम पूर्णतयः तटस्थ हों!!!! वस्तुतः यही धर्म की आवाज है जो ईश्वर ने नैसर्गिक रूप से सबके भीतर, प्रत्येक आत्मा में पहले से डाली हुई है. ..वस्तुतः यही, आत्मा या हमारी आन्तरिक ऊर्जा का मूल गुणधर्म (प्रॉपर्टीज) है. ..अधिकांशतः हम वाह्य आचारों (रिलिजन, संस्कृति आदि) में ही उलझकर रह जाते हैं और भीतर (धर्म) तक पहुँच ही नहीं पाते.