Saturday, June 2, 2018

(९६) चर्चाएं ...भाग - 15

(१) जीवन में योग का महत्व शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही है?
आजकल 'योगा' के नाम से मशहूर योग या योगाभ्यास मात्र शारीरिक व्यायाम ही है! कोई कितना भी कहे कि शरीर के साथ-साथ इससे आध्यात्मिक बलिष्ठता भी आती है, मगर ये सब कहने की बातें हैं. पहले के समय में शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों के विकास पर जोर दिया जाता था, बल्कि आध्यात्मिक (सद्गुणों के) विकास की पहले सोची जाती थी! आध्यात्मिक विकास पहले सुनिश्चित होते ही उसी आध्यात्मिक विकास के बल पर शारीरिक विकास को भी एक अतिरिक्त लाभ के रूप में अर्जित किया जाता था. लेकिन आजकल के 'योगा' में शारीरिक विकास के बल पर आध्यात्मिक पक्ष के विकास को एक अतिरिक्त लाभ के रूप में प्रचारित किया जाता है. ..यह बिलकुल असंभव और मिथ्या बात है!!! आपने भी आध्यात्मिक तेज के बल पर स्वस्थ शरीर का होना देखा होगा, किन्तु मात्र शरीर की स्वस्थता हेतु प्रयास करने वालों के आध्यात्मिक गुणों में वृद्धि होती क्या देखी है आपने??? ईमानदारी से विचार करें! ...यह सब मैं अपने अनुभवों से कह रहा हूँ, क्योंकि लखनऊ के अतिरिक्त मेरा एक अन्य दूसरा निवास एक योगकेंद्र परिसर में ही है. सत्य तो यह है कि केवल समुचित साथ ही व्यावहारिक आध्यात्मिक साधना और खरा साधकत्व ही व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति करता है, इसके पश्चात् वह शारीरिक योगसाधना भी बड़ी सरलता से कर सकता है; परन्तु केवल शारीरिक स्वास्थ्यलाभ के आकांक्षी व्यक्ति "योगा" (शारीरिक कसरत) करके अपने भीतर आध्यात्मिक साधकत्व को उत्पन्न नहीं कर सकते!

(२) आशा और विश्वास जीवन को सही दिशा दे कर जीवन जीने की राह प्रशस्त करते हैं, सो इन्हे खोने मत दो!! आधुनिक जीवन शायद कुछ अधिक जटिल होने से आज आत्महत्या के केस निरंतर बढ़ रहे हैं. ...अध्यात्म से जुड़ कर अपनी सोच को सकारात्मक बनाया जा सकता है!
हमारे समाज में आज जीवनशैली बदलने के साथ-साथ जीवन के मूल्य, नैतिक मूल्य, आचरण, स्वभाव आदि भी तेजी से बदल (नीचे की ओर जा) रहे हैं. जीवन के असली अर्थ, उद्देश्य आदि से लोग अपरिचित होते जा रहे हैं. एक अजीब सी आपाधापी चल रही है. व्यक्ति इससे अनभिज्ञ होता जा रहा है कि जिस भौतिक विलासिता, भौतिक सुखों और भौतिक भण्डारण के लिए वह दिन-रात एक किये दे रहा है वह तो जीवन का असल उद्देश्य है ही नहीं!!! प्रत्येक दिन के आखिर में शारीरिक और मानसिक रूप से अपने आपको बेतहाशा थकाकर वह जिस प्रकार यंत्रवत अपना जीवन चला रहा है वह उसे कुछ भौतिक प्रसन्नता तो अवश्य देता है पर उस प्रसन्नता की आयु लम्बी नहीं होती और ना ही वह स्थाई होती है. इससे खीजकर वह जटिलताओं, तनाव और अवसाद की ओर बढ़ता है, जिससे  आज हत्या और आत्महत्या दोनों के केस लगातार बढ़ ही रहे हैं. इसके अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक शोषण के मामलों में भी निरंतर वृद्धि हो रही है. सोच में विकृतियाँ लगातार बढती जा रही हैं. इन सब के पीछे का कारण बताना पिछली बातों को दोहराना ही होगा कि "हम तेजी से स्वयं यानी आत्मा यानी आत्मिक गुणों यानी परमात्मा से दूर जा रहे हैं." इसके भीतर जाना तो दूर की बात, इसकी चर्चा भी सामान्यतः लोगों को बोझिल सी लगती है! ...कुछ उस ओर जाना भी चाहते हैं तो वह भी किसी लालच से ही, जैसे शरीर को अधिक समय तक फिट (या जिन्दा!!!) रखने के लिए योगाभ्यास के रूप में कुछ शारीरिक व्यायाम करना और यह सोचना कि इससे हमारा आध्यात्मिक विकास भी हो ही जायेगा, हमारा मन आदि भी शांत रहेगा!!! पर यह भी केवल मनोवैज्ञानिक मिथ्याभ्रम मात्र ही है. सच तो यह है कि मन में साधकत्व आने से ही कुछ ठोस और टिकाऊ सध सकता है!

(३) खुशी का मूल स्रोत क्या है?
हमारे मूल में हमारी आत्मा है, और इस आत्मा के कुछ मूल गुणधर्म हैं, ये मूल गुणधर्म ही साक्षात् 'धर्म' अर्थात् "सदैव 'सर्वथा योग्य एवं न्यायपूर्ण' आचरण के निरंतर समर्थन की नैसर्गिक सूक्ष्मतम वृत्ति"! ....यह तो हो गया हमारा 'सूक्ष्म मूल' और उसका 'सूक्ष्म मूल स्वभाव'. ...जब मानव देहधारी आत्मा यानी मनुष्य, आत्मा के मूल स्वभाव के अनुसार / अनुकूल आचरण करता है तब उसे सर्वोच्च श्रेणी की खुशी अर्थात् 'आनंद' मिलता है. परन्तु सूक्ष्म देह में विद्यमान दुनियावी संस्कारों और उनसे निर्मित जड़ वृत्ति के कारण साधारण मनुष्य के लिए सर्वकाल आत्मा के निर्देशानुसार आचरण करना बहुत ही दुष्कर होता है. ..लेकिन फिर भी असंभव तो नहीं! ...कभीकभार ही  सही, पर जब कभी भी हम भीतर की दैवीय ध्वनि के निर्देशानुसार, हमारी स्थूल वृत्ति से हटकर कुछ अतियोग्य निर्णय लेकर तदनुसार आचरण करते हैं तो हमें अपार खुशी मिलती है. वह खुशी दिव्य होती है और हम उसे शब्दों में ठीक से बयान नहीं कर सकते! उस 'कभीकभार' को 'सदैव' की ओर ले जाना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए, यदि हमें हमेशा चिरस्थाई और गहरी खुशी चाहिए!

(४) आज सभी मानसिक तनाव से पीड़ित है!
यह बात सही है कि हमारे भूभाग में आज लगभग सभी मानसिक तनाव से ग्रस्त हैं, ..दुर्जन भी और सज्जन भी! ...दुर्जन अपने वर्तमान दुष्कर्मों के कारण या तो तनावग्रस्त हैं या अभी नहीं भी हैं तो भविष्य में अवश्य झेलेंगे. जबकि वर्तमान के सज्जन अपने पूर्वकर्मों के कारण वर्तमान में इन दुर्जनों के दुष्कर्मों से उत्पन्न पीड़ाओं को झेलने के लिए विवश हैं! देखा जाए तो दोनों के तनाव का कारण लोगों के वर्तमान या पिछले कर्म ही तो हैं! यदि किसी कर्म से स्थितियां बिगड़ी हैं तो किसी कर्म से ही स्थितियां सुधर सकती हैं! तो, सज्जनों को चाहिए कि वे अपनी वर्तमान सज्जनता को कायम सखते हुए दुर्जनों के भीतर भी सज्जनता उत्पन्न करने की चेष्टा करें; साथ ही दुर्जन भी अपनी सोच को बदलकर सकारात्मकता की ओर बढें. यही दोनों के वर्तमान और भविष्य के लिए तनाव-मुक्ति प्रदान करेगा. अच्छे विचारों की उत्पत्ति ही बुरे विचारों का नाश करेगी! जिस राष्ट्र में भी बहुतायत विशेषकर अग्रणी समाज में सकारात्मकता यानी अच्छाई है उस राष्ट्र में मानसिक तनाव उतना ही कम है और खुशहाली ज्यादा है.

(५) आज देश को धर्म और जाति के नाम से बांटने वालों को कैसे रोका जा सकता है...??
जागरूक होकर तत्पश्चात सोच को ऊपर उठाकर ही हम इस जहर को फैलने से रोक सकते हैं. हमारे वर्तमान बड़े आका (धार्मिक / आध्यात्मिक गुरुजन, राजनेता, उच्च पदों पर आसीत् अधिकारी) आदि तो कुछ करने से रहे. अब आम जनता को खुद ही उठना होगा, खुद से ही प्रेरित होना होगा और ऐसे भ्रष्ट व अवसरवादी तंत्र को उखाड़ फेंकना होगा. वैसे इस प्रकार के कृत्य को हमारे आका बगावत का नाम देंगे, पर वस्तुतः यह एक क्रांति होगी. बहुत बड़े आमूलचूल परिवर्तन किसी क्रांति से ही संभव होते हैं. फिर भी यह क्रांति इतनी सरल नहीं, क्योंकि यह क्रांति सर्वप्रथम अपनी खुद की मानसिकता बदलने के बाद ही संभव है. तो फिर प्रथम एक ही उपाय है कि सभी लोग अपने स्वार्थों से क्रमशः ऊपर उठते हुए खरे साधकत्व की ओर बढ़ें.