Thursday, June 7, 2018

(९७) चर्चाएं ...भाग - 16

(१) हम अपने भोजन का परिणाम हैं! जिस प्रकार का वह भोजन करेगा, वैसा ही उसका व्यक्तित्व निर्मित होगा!
कल व्हाट्सएप पर अंग्रेजी में एक शॉर्ट मैसेज मिला, जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है- "उन्नत या अच्छे होने का मतलब यह नहीं कि आप पीते नहीं, धूम्रपान नहीं करते, दावतों-पार्टियों में नहीं जाते, शाकाहार ही खाते हैं; बल्कि आपका उन्नत या अच्छा होना आपके हृदय में चल रही भावनाओं, शिष्टाचार और लोगों के प्रति आपके सम्मान व व्यवहार से जाहिर होता है." .....हाँ, यदि मैं आपके शब्दों के भाव को आगे दिए वाक्य अनुसार सकारात्मक रूप दे दूं तो आपका कथन सर्वथा सही हो जायेगा-- "जो जिस उपाय से भोजन (या अपनी कोई अन्य मूलभूत आवश्यकता / जीविका) अर्जित करता है (जुटाता है), उसी प्रकार से उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है." ....इस विषय पर आप मेरे विचारों को विस्तृत रूप से "(१९) खान-पान और धर्म" में पढ़ सकते हैं.

(२) भरोसा मजबूत होगा तो आप निडर होंगे! आज भरोसा की ही कमी है अतः कोई किसी का सम्मान भी नहीं करता!
सच है कि यदि हमें ईश्वर और खासतौर पर सार्वभौमिक ईश्वरीय सिद्धांतों पर पूरा भरोसा होगा तो हम निर्भय रहेंगे. यहाँ प्रचलित वर्तमान धारा के विपरीत भी सभी प्रकार के अच्छे और न्यायसंगत कार्य करने में हमें कोई संकोच, संशय अथवा भय नहीं होगा; भले ही कोई त्वरित एवं उचित प्रतिसाद (रेस्पोंस) न मिले तिसपर भी! व्यक्तियों के परिपेक्ष्य में यदि भरोसे की बात की जाये तो, एक-दूसरे पर विश्वास और एक-दूसरे के प्रति सद्भावना से ही परस्पर सम्मान दिया और लिया जा सकता है. क्रिया के अनुसार ही तो प्रतिक्रिया प्राप्त होती है!

(३) सामाजिक बुराइयों से क्या एक स्त्री अकेली लड़ सकती है...?
जी हाँ! ...वैसे घर वालों और समाज के जागरूक तबके का सहयोग मिले तो थोड़ी आसानी रहती है. पर बहुत से मामलों में हमें ये दोनों सहयोग भी नहीं मिल पाते! तब लड़ते-जूझते बारम्बार नाकामी भी मिलती है और इससे हौसला भी पस्त होता है, अनेकों बार मन में निराशा और हताशा आ जाती है. फिर भी कहूँगा कि एक स्त्री में एक पुरुष से अधिक साहस, धैर्य, व दृढ़ता जैसे गुण होते हैं. इसलिए किसी भी समस्या से जूझने की कालावधि एवं सामर्थ्य एक स्त्री में पुरुष से अधिक होते हैं. धैर्य का गुण होने से बहुत विषम परिस्थितियों में भी एक स्त्री अपने मस्तिष्क को ठंडा रखते हुए बखूबी बहुत सूझबूझ वाले निर्णय ले सकती है. अपनी इन विशेषताओं को पहचानकर और उनपर भरोसा कर अब वह समस्याओं से लड़ने के लिए अकेले ही ठन्डे दिमाग से सर्वोत्तम न्यासंगत प्रयास करे! कोई मानवीय साथ न मिलने की दशा में अपने प्रयासों की प्रक्रिया में यदि वह अपने आध्यात्मिक पक्ष को भी ठोस और मजबूत कर ले तो वह टूटेगी नहीं और अनेक विफलताओं के बावजूद बिना थके और बिना अवसादग्रस्त हुए उसके प्रयासों का सिलसिला अनवरत चलता रहेगा! क्योंकि प्रत्येक असफल प्रयास के बाद भी उसे 'भरोसा' है कि उसका यह प्रयास ईश्वरीय सिद्धांतों के अनुसार कहीं न कहीं दर्ज अवश्य हो रहा है और किसी योग्य समय पर उसे इन योग्य प्रयासों का प्रतिफल किसी न किसी अच्छे स्वरूप में अवश्य मिलेगा! यह भरोसा ही हमें भीतर से एक दिव्य मजबूती देता है! निःसंदेह पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में यह भरोसा बहुत अधिक होता है, यह बात कुदरती रूप से स्त्रियों के पक्ष में जाती है! जिसमें भरोसा अधिक, वह ही अधिक नैतिक!!! जो अधिक नैतिक, वह ही 'धर्म' (न्यायसंगतता) के पक्ष में!!! और जो न्यासंगत, उससे न्यायूर्ण ढंग से मिलने वाली सफलता या किसी अन्य प्रकार की ईश्वरीय अनुकंपा अधिक समय दूर नहीं रह सकती!!! इसीलिए तो मैंने अपने पूर्व आलेखों में भी अनेकों बार स्त्रियों को पुरुषो से कहीं अधिक श्रेष्ठ घोषित किया है. जागरूक स्त्रियों से मेरी विनम्र विनती है कि कृपया वे खुद को अबला, असहाय अथवा कमजोर समझकर पुरुषवर्ग की मानसिकता का अनुसरण करके उन जैसा बनने की चेष्टा न करें!!! आप पुरूषों से बहुत अलग और बहुत आगे हैं. अपना यह अनूठापन बनाये रखें. इस अनूठेपन के साथ कोई भी समस्या लम्बे समय तक आपको परेशान नहीं कर पायेगी. यह अनूठापन ही आपके स्वाभिमान को अक्षुण्ण रखेगा. पुरुषों के अनेकों पापों के बावजूद आपके इसी अनूठेपन ने अतीत में और वर्तमान में अनेकों बार अपने जीवनसाथी और सम्पूर्ण मानवजाति के पाप के घड़े को भरने से बचाया है, और फलस्वरूप इस धरा को सृष्टिकर्ता के कोप से बचाया है. कृपया अपनी विशिष्टता को गर्व के साथ सहेजें. ऐसी दिव्य शक्ति के शब्दकोष में 'मुश्किल' शब्द तो हो सकता है, किन्तु 'असंभव' शब्द तो कदापि नहीं!

(४) आज पाश्चात्य सभ्यता का हमारे नवयुवकों पर बढ़ता दुष्प्रभाव काफी घातक सिद्ध हो रहा है, ....क्या यह सही है? आज हमारे नवयुवक हर बात में पश्चिम को नक़ल कर अपनी संस्कृति के विरुद्ध जा कर परेशान हो रहे हैं ...जिसे आज अपनी शान समझ कर अपना रहे हैं, वही उनको तनाव दे कर बैचैन कर रहा है!
देखिये, इन्टरनेट के इस युग में और विभिन्न देशों के मध्य व्यापार सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय संधियों (आपसी लेनदेन) के इस युग में जहाँ सम्पूर्ण विश्व एक ही दायरे में सिमट आया है, वहां अब यह पूरब और पश्चिम की सभ्यता की बात करना व्यर्थ ही है! विश्व भर की समस्त सूचनाएं, खोजें व आविष्कार, फैशन, उपभोक्ता सामान, आदि सबकुछ अब सबको सहज उपलब्ध हैं. सूचनाओं, सामग्री और सोच का ढेर लगा हुआ है, चुनने के लिए ढेरों विकल्प हैं. ..अब मुद्दे की बात यह है कि अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किसको चुनते हैं, किसको अपनाते हैं, बड़े हो रहे अपने छोटों को किस प्रकार की सलाह देते हैं, दिमाग को कितना खुला रखते हैं, खुद को कितना दूरदर्शी बनाते हैं और उस अनुभव से अपने छोटों को कितना दूरदर्शी बनाते हैं!!! आज जैसे हमारे पास ज्ञान और सामान का भंडार तथा उनमें से मनचाहा व श्रेष्ठ चुनने का विकल्प व स्वतंत्रता है, उसी प्रकार से यह सबकुछ लगभग सभी औसत रूप से समर्थ राष्ट्रों के नागरिकों के पास भी है. जिस राष्ट्र के शासक, अभिजातवर्ग, और नागरिक इन ढेरों विकल्पों के बीच जितना अच्छा चुनाव कर रहे हैं, वह राष्ट्र उतना ही समृद्ध व सुखी है; वहां की सामान्य सोच और जीवनशैली उत्तम है, कानून-व्यवस्था की स्थिति भी बहुत सराहनीय है! अब इन हालातों में यह पूरब और पश्चिम के भेद का फंडा अपनी समझ से तो परे है! .....सच तो यह है कि अपने संघ में फैली कुरीतियों, अव्यवस्था, बिगड़ी जीवनशैली, लुंजपुंज कानून व्यवस्था, नैतिक पतन आदि से दुखी और कुपित होकर खीजते हुए हम सारा दोष पश्चिमी सभ्यता के ऊपर मढ़ने की कोशिश करते हैं! देखिये गलत सोच और गलत चालचलन रूपी बैक्टीरिया-वायरस आदि विश्व में अब सभी जगह अपनी पहुँच रखते हैं, लेकिन कमजोर मनों-दिमागों-शरीरों में ही उनका प्रवेश या हमला संभव हो पाता है. क्या यह संभव नहीं कि हम मानसिक रूप से कमजोर या संकीर्ण थे/हैं?! जो संघ अपनी जीवनशैली, सोच, आचार-विचार आदि को सही और व्यावहारिक रखने में कामयाब है वह हमसे आगे है! हम यदि पीछे हैं तो अपने गलत चुनावों के कारण!!! जीर्णशीर्ण हो चुकी कुछ पुरानी मान्यताओं के प्रति अंधश्रद्धा भी उसका एक बहुत बड़ा कारण है, जितना बड़ा कारण आप पश्चिम के अन्धानुकरण को बताते हैं!!!! तमाम आधुनिकताओं और संसाधनों के बावजूद हम अभी भी जड़ बुद्धि हैं, हमारी अनेकों बेड़ियाँ और गलतियाँ हमें सही रूप से सक्रिय और उन्नत होने से रोक रही हैं! सिर्फ एक उदाहरण- आज का एक 'औसत' भारतीय युवा पढाई के क्षेत्र में किसी भी विषय की गहरी समझ बटोरने के बजाय उसका उथला अध्ययन करता है और शेष भगवान् के दरबार में हाजिरी लगाकर, प्रसाद चढ़ाकर प्राप्त कर लेना चाहता है! यह चीज उसने पश्चिम से नहीं बल्कि अपने बड़ों को ऐसा करते देखकर ही सीखी है!!! अनेकों अन्य उदाहरण हैं जिनके लिए शब्द कम पड़ जायेंगे, क्योंकि सामाजिक कमजोरियां हैं ही इतनी ज्यादा! आज के बिगड़े और तनाव लेने-देने वाले बच्चों के स्वभावदोषों के लिए जितना हम बच्चों या पश्चिमी सभ्यता को दोषी बताते हैं उससे अनेक गुना अधिक दोषी हम अभिभावक स्वयं हैं, जो बच्चों के समक्ष कोई भी अच्छा उदाहरण (अपने आचरण से) रखने में नाकाबिल सिद्ध हुए हैं. बच्चे तो कोरा कागज होते हैं, उनके मन-मस्तिष्क पर इबारत हम अभिभावक और आसपास का समाज ही लिखते हैं, उसी से उसका बुनियादी व्यक्तित्व बनता है. याद रखें- बुनियाद अच्छी तो इमारत अच्छी!