Tuesday, June 12, 2018

(९८) चर्चाएं ...भाग - 17

(१) असली पल क्या है, जिसको देखो यह कहता है यह पल ही जीवन है!?
कुछ दार्शनिक सा किन्तु बिल्कुल सत्य है यह वाक्य- "यह पल ही जीवन है, जी भर के इसे जी लो." ...'यह पल' यानी 'वर्तमान'! 'भूतकाल' में जो गुजर गया, उसने हमारे अनुभवों, परिपक्वता आदि में वृद्धि की; भूतकाल का महत्त्व बस इतना सा ही किन्तु उपरोक्त दृष्टिकोण से लाभदायक है! और वर्तमान में हम जो भी चिंतन-मनन और तदनुसार 'कर्म' करेंगे, उनसे हमें सबसे अधिक वर्तमान में और 'संभवतः' भविष्य में भी लाभ होगा! यहाँ 'संभवतः' इसलिए कि 'भविष्य' दूर है, और भविष्य के बारे में हम कुछ भी ठोस रूप से कहने और अपेक्षा रखने में असमर्थ हैं. अतः संदर्भित कथन (यह पल ही...) हमें वर्तमान पल का भरपूर, सम्पूर्ण और सबसे बढ़िया 'उपयोग' करने के लिए प्रेरित करता है. आज, ..इस पल हमारे समक्ष उपस्थित ढेरों विकल्पों में से किया गया सर्वोत्तम संभव कर्म का चुनाव ही 'इस पल को जीना' है! वह चुनाव भौतिक जगत से सम्बंधित भी हो सकता है, और आध्यात्मिक जगत से सम्बंधित भी! कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि हम दोनों में से क्या चुनते हैं!!! बस शुभ और सार्थक, साथ ही अपने और संबद्ध व्यक्ति के मन-हृदय-आत्मा को आह्लादित करने वाला होना चाहिए. ऐसा चुनाव होगा तो वर्तमान तुरंत ही सुन्दर होगा और भविष्य में भी शुभ की आशा बनेगी! इन सब के अतिरिक्त इस 'वाक्य' के पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण सत्य छुपा है वह यह कि, यह भौतिक जीवन क्षणभंगुर है, कोई नहीं जानता कि इस जन्म का कितना समय शेष है. और यह वर्तमान जन्म और सम्बद्ध परिस्थितियां हमें अपने पूर्वकर्मों की बदौलत मिले हैं. यह जीवन अनमोल है क्योंकि यह सीमित है और इसका भरपूर सदुपयोग करने की ईश्वरीय अपेक्षा भी इसके पीछे निहित है; और यह जीवन कर्म-प्रधान ही है तो क्यों न हम इस जीवन के हर पल को संभावित आखिरी पल मानकर उसे भरपूर जियें!!! पुनः, ...वर्तमान में, ..आज, ..या इस पल, ...उपलब्ध विकल्पों में से यथासंभव सर्वश्रेष्ठ को चुनने के बाद, या संयोग से ही एकाएक समक्ष आए, प्रत्येक कार्य को कर्तव्य समझकर मन लगाकर, दिल लगाकर, पूरी तन्मयता, कुशलता और सम्पूर्णता से हंसी-खुशी उसे करना ही उस पल को भरपूर जीना है. चाहे वह कार्य पढाई-लिखाई से सम्बंधित हो, चाहे खेलने-कूदने से, चाहे नाचने-गाने से, चाहे गहन आध्यात्मिक साधना से, चाहे सच्चे प्रणय निवेदन से, चाहे संगीत साधना से, चाहे वह किसी से भी सम्बंधित हो! यही भौतिक उपासना है और यही आध्यात्मिक भी!!! "योगः कर्मसु कौशलं", ...इस अप्रत्याशित जीवन के इसी पल पूरी कुशलता के साथ किया कर्म ही योग (ईश्वर से जुड़ना) है!

(२) मृत्यु का भय क्यों होता है?
अध्यात्मशास्त्र का हिन्दू दर्शन कहता है कि, "शरीर की मृत्यु होती है, आत्मा की नहीं"; ईसाई और इससे मिलते-जुलते दर्शन के अनुसार, "मृत्यु के बाद भी योग्य व्यक्तियों का पुनरुत्थान होगा." ...फिर भी सामान्य व्यक्ति को मृत्यु का भय होता है क्योंकि उसने प्रत्यक्ष में ऐसा होते तो देखा नहीं और दूसरे अप्रत्यक्ष किन्तु कुछ ठोस सूक्ष्म ज्ञान-अनुभूतियों से भी वह वंचित है. ..थोड़ी बहुत सूक्ष्म समझ रखने वालों को भी मृत्यु का भय सताता है क्योंकि उनकी फिलोसोफी के अनुसार, "यह मानवजन्म प्रारब्ध भोगने व कर्म करके कुछ अच्छा संचित (पुनरुत्थान सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से भी) करने के निमित्त ही है", तो यह जीवन जितना अधिक लंबा हो जाये उतना ही बेहतर!! ...और उत्तम ज्ञानी व्यक्ति इस जीवन की भंगुरता को भी समझते हैं और कर्म की गुणवत्ता के महत्व को भी! वे जानते हैं कि इस जीवन के प्रत्येक पल को आखिरी जानकर अविलम्ब किये गए सर्वोत्तम शुभ-कर्म ही उसकी आत्मा के आगामी सुंदर सफर या पुनरुत्थान सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक साबित होंगे! वे जिंदगी के हरएक पल की अहमियत को समझकर उसे भरपूर सार्थकता के साथ हंसी-खुशी जीते हैं; वे लगभग भयमुक्त होते हैं!

(३) प्रतिदिन कुछ नया सीखना ज्ञान है , हरदिन कुछ नकरात्मकता दूर करना विवेक है और ज्ञान से विवेक की यात्रा ही सही मार्ग है...? दुनिया में ज्ञानी तो बहुत हैं किन्तु विवेकी शायद कोई विरला ही होगा ...क्यों?
दुनिया में ज्ञानी तो बहुत हैं, किन्तु विवेकी बहुत कम; आपके इस कथन से मैं भी सहमत हूँ. सही बात है कि हमारे देशवासियों के पास जितना ज्ञान का भंडार है उतना अन्यत्र शायद कहीं नहीं होगा, लेकिन उसका विवेकपूर्ण और सतत इम्प्लीमेंट विरले ही देखने को मिलता है. यहाँ तो अपेक्षाकृत कम पढ़ा-लिखा एक नाई, एक पान वाला, रिक्शावाला, रेहड़ी वाला तक परम ज्ञान रखते हैं; और पढ़े-लिखों की तो बात ही निराली है, वे तो अथाह ज्ञान के सागर हैं; यानी आध्यात्मिक समझ भरपूर है, लेकिन उनका विवेक इस ज्ञान को नहीं अपनाता! वह इस ज्ञान का व्यावहारिक समर्थन, अनुपालन या आचरण करता नहीं दिखता! असल में करना कुछ नहीं और मात्र ज्ञान के फुलाव को प्रदर्शित करना ही यहाँ लोगों के टाइम-पास का एक बढ़िया जरिया बन गया है! आज के स्टेटस सिंबल रूपी अधिकांश सत्संगों और आध्यात्मिक मंचों/केन्द्रों तक में इसकी बानगी दिखाई पड़ती है. इसीलिए तो नकारात्मकता कम होने का नाम नहीं ले रही, अपितु दिनोंदिन बढ़ ही रही है.

(४) सम भाव कैसे रखा जाये?
अपने सूक्ष्म और असल स्वरूप को पहचान कर यानी अपनी आत्मा के मूल गुणधर्म (प्रॉपर्टीज) को पहचान कर, उपरांत उसी के अनुसार रोजमर्रा की जिन्दगी में आचरण करने पर ही सम-भाव रख पाना संभव है. सूक्ष्म या आध्यात्मिक ज्ञान बहुत जरूरी, और उससे भी बहुत-बहुत जरूरी है- जीवन में उसे लागू करना! 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का भाव उसी के बाद ही जन्म ले सकता है!

(५) प्रायः सभी को एक शिकायत तो अक्सर रहती ही है - बुरा काम कोई नहीं किया, किसी को सताया या परेशान भी नहीं किया; फिर भी दूसरे लोग परेशान करते हैं,और जीवन में दुःख बना ही रहता है!?
अक्सर अपने अहंकार या इगो के कारण लोगों को अपनी गलतियाँ दिखाई नहीं पड़तीं या समझ में नहीं आतीं! ...या फिर उनके द्वारा हुई गलतियाँ (अयोग्य क्रियाएं) उनकी यादाश्त की सीमा से ही बाहर होती हैं! हमारे जीवन में होने वाली प्रत्येक घटना के पीछे कोई न कोई ठोस कारण अवश्य है, भले ही हम उसे ज्ञात न कर पाएं. ..यह ठोस कारण वे ज्ञात-अज्ञात क्रियाएं ही हैं जो हमने वर्तमान, निकट अतीत या बहुत पहले कभी कीं. प्रकृति का ताना-बाना केवल कुछ प्रतिशत ही बूझा है हमने! उदाहरण के लिए-- जब कोई मनुष्य किसी लालच में आकर किसी पहाड़ी क्षेत्र में पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करता है, पहाड़ों की चट्टानों, पत्थरों आदि को बांधे रखने वाले पेड़ों को अंधाधुंध काट डालता है तो उसके बाद जब कोई जियोलॉजिस्ट वहां का दौरा करता है तो वह अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर भविष्य में भूस्खलन की प्रबल सम्भावना तो बता देता है, लेकिन यह पूछने पर कि तबाही कब आयेगी, वह कोई ठोस या बिलकुल सही-सही उत्तर नहीं दे पाता! एकदम सटीकता से "कब?" का उत्तर ना दे पाना यही दर्शाता है कि प्रकृति के ताने-बाने का बहुत कुछ हिस्सा हम अभी भी नहीं जानते! ..लेकिन यह जानते हैं कि क्रिया के फलस्वरूप उसी प्रकृति की कोई अन्य प्रतिक्रिया अवश्य आयेगी, पर किस रूप में और कब (???), इसका सटीक आंकलन करने में बड़े-बड़े मनीषी भी असमर्थ हैं! ...तो फिर से मुख्य विषय पर आते हुए, ...हमारे जीवन से जुड़ी प्रत्येक घटना हमारी अपनी ही नयी-पुरानी क्रियाओं की गूँज/प्रतिध्वनि है. आने वाले भविष्य की घटनाएं सुखद हों, इसके लिए बहुत आवश्यक है कि हम अपनी वर्तमान क्रियाओं को अच्छे से अच्छा करें. ..और यदि हम वर्तमान में वास्तव में भला काम ही कर रहे हैं तो निश्चिन्त रहें कि उसका प्रतिफल निकट भविष्य या कभी दूर भविष्य में अवश्य प्रकट होगा. ......कोई किसान जो घटिया बीज और घटिया खाद पिछली फसलों को बोते समय डाल चुका, उसका खामियाजा तो अभी वह भुगत ही रहा होगा; पर साथ ही अभी इस वक्त जब वह जाग्रत हो कर बढ़िया बीज और बढ़िया खाद डाल रहा है, तो इस क्रिया से उसकी आने वाली फसलों के अच्छे होने की सम्भावना अब प्रबल है!

(६) जीवन में मार्गदर्शन क्यों जरूरी है?
नित कुछ सीखने और सिखाने के लिए मार्गदर्शन लेना और देना, दोनों ही आवश्यक हैं. कहीं और कभी हम शिष्य या स्टूडेंट होते हैं तथा कहीं और कभी हम टीचर भी होते हैं! जीवन में समानांतर रूप से दोनों भूमिकाएं मिलती हैं हमें! जो दोनों का ही समान रूप से लाभ उठाये, वो शीघ्र उन्नति करता है तथा दूसरों को भी लाभ पहुंचाता है.